Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८२
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जाये तो यथाप्रवृत्तसंक्रम जितना बल और पर में जो प्रक्षेप किया जाता है, उस हिसाब से निक्षिप्त किया जाये तो उससे बहुत ही अल्प बल है । प्रकृति का निःसत्ताक करने में उवलनासंक्रम उपयोगी है । जहाँ-जहाँ वह संभव है, वहाँ-वहाँ वह वह प्रकृति निःसत्ताक होती है । प्रथम गुणस्थान में कतिपय प्रकृतियों का उदुवलनासंक्रम होता है, परन्तु ऊपर के गुणस्थान से पहले गुणस्थान में हीनबल वाला होता है ।
इस प्रकार से गुणसंक्रम आदि के काल का अल्पबहुत्व जानना चाहिये । परन्तु द्विचरमखंड तक के खंडों का दलिक उवलनासंक्रम द्वारा पर और स्व में इस प्रकार दो रूप से संक्रमित किया जाता है । यहाँ जो अल्पबहुत्व कहा है, उसमें द्विचरमखंड को पर में यदि संक्रमित किया जाता है, उस हिसाब से चरमखंड का दलिक पर में निक्षिप्त किया जाये तो जितना काल हो उतना काल उवलनासंक्रम का लेना है, यह बताने के लिये तथा यथाप्रवृत्तसंक्रम का भी प्रमाण बताने के लिये आचार्य गाथासूत्र कहते हैं
जं दुचरिमस्स चरिमे सपरट्ठाणेसु देई समयम्मि । ते भागे जहकमसो
अहापवत्तुव्वलणमाणे ॥ ८२ ॥
शब्दार्थ- - जं -- जो, दुचरिमस्स - द्विचरमखंड के, चरिमे― चरम, सपरट्ठाणेसु --- स्व और पर स्थान में, देई -- प्रक्षिप्त किया जाता है, समयम्मि --- समय में, ते—–वे, भागे भाग, जहकमसो –— यथाक्रम से, अहापवत्तुव्वलणमाणे - यथाप्रवृत्त और उद्बलना संक्रम का प्रमाण ।
गाथार्थ-द्विचरमखंड के चरम समय में स्व और पर स्थान में जो दलिकभाग प्रक्षिप्त किया जाता है, वे दलिकभाग यथाक्रम - अनुक्रम से यथाप्रवृत्त और उदुवलना संक्रम के प्रमाण हैं ।
विशेषार्थ - द्विचरमखंड का चरमसमय में जो दलिकभाग स्व और पर स्थान में प्रक्षिप्त किया जाता है, संक्रमित किया जाता है,
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