Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१६
संक्रम आदि करणय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३
१९१ उत्तर प्रकृतियों संबंधी साद्यादि प्ररूपणा
चउहा धुवछव्वीसगसयस्स अजहन्नसंकमो होइ ।
अणुक्कोसो विहु वज्जिय उरालियावरणनबविग्घं ॥३॥ शब्दार्थ- चउहा---चार प्रकार का, ध्रवछवीसगसयस्स-ध्र व एक सौ छब्बीस प्रकृतियों का, अजहन्नसंकमो-अजघन्य संक्रम, होइ-होता है, अणुक्कोसो-अनुत्कृष्ट, विहु-भी, वज्जिय-छोड़कर, उरालियावरणनवविग्घं-औदारिकसतप्क, नव आवरण और अंतरायचक । ___ गाथार्थ-पूर्वोक्त ध्रुव एक सौ छब्बीस प्रकृतियों का अजघन्य संक्रम चार प्रकार का है और औदारिकसप्तक, नव आवरण और अंतरायपंचक को छोड़कर शेष प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट भी चार प्रकार का है।
विशेषार्थ—पूर्व में कही गई ध्र वसत्ता वाली एक सौ छब्बीस प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशसंक्रम सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
जिसका स्वरूप आगे कहा जायेगा ऐसा और कर्मक्षय करने के लिये प्रयत्नवंत क्षपितकर्मांश जीव सभी ध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है और वह नियत कालपर्यन्त ही होने से सादि-सांत है। उसके सिवाय जो प्रदेशसंक्रम अन्य जीवों के होता है, वह सब अजघन्य है। वह अजघन्य प्रदेशसंक्रम उपशमश्रेणि में बंधविच्छेद होने के बाद पतद्ग्रह का अभाव होने से किसी भी प्रकृति का नहीं होता है, किन्तु वहाँ से गिरने पर होता है, इसलिये सादि है । उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया, उसकी अपेक्षा अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्र व है। तथा
औदारिकसप्तक, ज्ञानावरणपंचक, चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक को छोड़कर शेष एक सौ पांच ध्र वसत्ता वाली प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम भी सादि आदि चार प्रकार है। जिसका स्वरूप आगे कहा जायेगा ऐसा और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org