Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८४
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इस प्रकार मिथ्यादृष्टि में एक के बाद एक के क्रम से होने के कारण वे दोनों सादि-सांत हैं और उनके जघन्य विकल्प का विचार तो अजघन्य कहने के प्रसंग में किया जा चुका है कि वह सादि-सांत होता है।
ध्र वसत्ता वाली एक सौ तीस प्रकृतियां हैं। उनमें से एक सौ छब्बीस प्रकृतियों के विकल्पों का विचार किया जा चुका है और शेष चार प्रकृतियों का कहते हैं कि मिथ्यात्वमोहनीय की ध्रुवसत्ता है, लेकिन सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय रूप उसका पतद्ग्रह स्थायी नहीं होने से उसका किसी भी प्रकार का कोई संक्रम सदैव होता नहीं है। किन्तु जब पतद्ग्रह प्रकृति हो तब होता है और वह भी भव्यात्मा को नियतकाल पर्यन्त होता है, इसलिये इसके जघन्य आदि चारों विकल्प सादि-सांत हैं। अभव्य के तो मिथ्यात्व के प्रदेशों का संक्रम ही नहीं होता है।
नीचगोत्र और साता-असाता वेदनीय परावर्तमान प्रकृति होने से उनके अजघन्यादि सादि-सांत जानना चाहिये। क्योंकि जब साता का बंध हो तब असातावेदनीय का संक्रम हो और असाता का बंध हो तब सातावेदनीय का संक्रम हो। उच्चगोत्र का बंध होने पर नीचगोत्र का संक्रम होता है और नीचगोत्र का बंध हो तब उच्चगोत्र का संक्रम होता है। जो प्रकृति बंधती हो उसमें अबध्यमान प्रकृति का अजघन्य प्रदेशसंक्रम होता है, इसलिये उन प्रकृतियों के अजघन्य आदि संक्रम स्थायी नहीं होने से उनमें सादि-सांत भंग ही घटित हो सकते हैं तथा अध्र व सत्ता वाली अट्ठाईस प्रकृतियों के अजघन्यादि प्रदेशसंक्रम उनके अध्र वसत्ता वाली होने से ही सादिसांत हैं।
इस प्रकार से साद्यादि भंग प्ररूपणा जानना चाहिये। सुगमता से बोध कराने वाला जिसका प्रारूप इस प्रकार है
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