Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
दोनों की उदयकाल रूप समानस्थिति घट सकती है। अबाधाकाल बीतने के अनन्तर तो प्रत्येक कर्म अवश्य फल देने के सन्मुख होता है। उसमें कोई कर्म अपने स्वरूप से फल दे, ऐसी स्थिति में तो कोई कर्म अन्य में मिल कर फल दे, ऐसी स्थिति में होता है । जैसे कि जिस गति की आयु का उदय हो उसके अनुकूल सभी प्रकृतियों का स्वरूपतः और उनके सिवाय अन्य प्रकृतियों का पररूप से उदय होता है। पररूप से जो उदय उसी का नाम ही प्रदेशोदय या स्तिबुकसंक्रम कहलाता है। यहाँ यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि अबाधाकाल बीतने के बाद प्रत्येक कर्मप्रकृति फल देने के उन्मुख होती है, यानि जो स्वरूप में अनुभव की जाये, उसकी जैसे उदयावलिका होती है, उसी प्रकार जो पररूप से अनुभव की जाये, स्वरूप से अनुभव न की जाये उसकी भी उदयावलिका होती है। उदयावलिका अर्थात् उदयसमय से लेकर एक आवलिका काल में भोगे जायें, उतने स्थितिस्थान । वे स्थितिस्थान तो दोनों में हैं ही, किन्तु एक को रसोदयावलिका कहते हैं और दूसरे को प्रदेशोदयावलिका-स्तिबुकसंक्रम कहते हैं।
नामकर्म की अनेक प्रकृतियां हैं। किन्तु सभी का नहीं, अमुक का ही रसोदय होता है और शेष प्रकृतियां प्रदेशोदय के रूप में अनुभव की जाती हैं। इसीलिये गाथा में जो मात्र पिंडप्रकृतियों का संकेत किया है, वह बहुत्व की अपेक्षा से है। जिससे अन्य प्रकृतियों में भी यदि उनका स्वरूप से उदय न हो तो उनमें भी स्तिबुकसंक्रम प्रवृत्त होता है, ऐसा समझना चाहिये । जैसे कि क्षयकाल में संज्वलन क्रोधादि की शेषीभूत उदयावलिका संज्वलन मान आदि में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित होती है।
इस प्रकार से स्तिबुकसंक्रम की लाक्षणिक व्याख्या जानना चाहिये । अब विध्यात आदि गुणसंक्रम पर्यन्त के अपहारकाल के अल्पबहुत्व का निर्देश करते हैं ।
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