Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७७
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ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के यथाप्रवृत्तसंक्रमक तबंधक हैं तथा तद्भवयोग्य परावर्तमानबंधिनी प्रकृतियों के संक्रमक तबंधक और अबन्धक दोनों हैं।
यह संक्रम योगानुरूप होता है। इसके बाधक विध्यात या गुण संक्रम हैं। ___ इस प्रकार से यथाप्रवृत्तसंक्रम का स्वरूप जानना चाहिये। अब क्रमप्राप्त गुणसंक्रम का निर्देश करते हैं। गुणसंक्रम
असुभाण पएसग्गं बज्झंतीसु असंखगुणणाए।
सेढीए अपुवाई छुभंति गुणसंकमो एसो ॥७७॥ शब्दार्थ----असुभाण-अशुभ प्रकृतियों के, पएसग्गं-प्रदेशाग्र, बझंतीसु-बध्यमान प्रकृतियों में, असंखगुणणाए-असंख्यातगुण, सेढीए-श्रेणि से, अपुव्वाइं-अपूर्वकरणादि, छुभंति-संक्रमित करते हैं, गुणसंकमो-गुणसंक्रम एसो—यह ।
गाथार्थ----(अबध्यमान) अशुभ प्रकृतियों के प्रदेशाग्र को बध्यमान प्रकृति में असंख्यात गुणश्रेणि से अपूर्वकरण आदि जीव जो संक्रमित करते हैं, यह गुणसंक्रम कहलाता है। विशेषार्थ-अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों के दलिकों को अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवी जीव प्रति समय असंख्य गुणश्रेणि से बध्यमान प्रकृतियों में जो संक्रमित करते हैं, वह गुणसंक्रम है। पूर्व-पूर्व समय से उत्तर-उत्तर समय में असंख्य-असंख्य गुणाकार रूप से जो संक्रम वह गुणसंक्रम, यह गुणसंक्रम शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है। __ अपूर्वकरण आदि गुणस्थान से जिन अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है, वे इस प्रकार हैं-मिथ्यात्व, आतप और नरकायु को छोड़कर मिथ्यादृष्टि के बंधयोग्य तेरह तथा अनन्तानुबंधिचतुष्क, तिर्यंचायु और उद्योत को छोड़कर शेष ससादनगुणस्थानयोग्य उन्नीस तथा अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क रूप आठ
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