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________________ संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७७ १७६ ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के यथाप्रवृत्तसंक्रमक तबंधक हैं तथा तद्भवयोग्य परावर्तमानबंधिनी प्रकृतियों के संक्रमक तबंधक और अबन्धक दोनों हैं। यह संक्रम योगानुरूप होता है। इसके बाधक विध्यात या गुण संक्रम हैं। ___ इस प्रकार से यथाप्रवृत्तसंक्रम का स्वरूप जानना चाहिये। अब क्रमप्राप्त गुणसंक्रम का निर्देश करते हैं। गुणसंक्रम असुभाण पएसग्गं बज्झंतीसु असंखगुणणाए। सेढीए अपुवाई छुभंति गुणसंकमो एसो ॥७७॥ शब्दार्थ----असुभाण-अशुभ प्रकृतियों के, पएसग्गं-प्रदेशाग्र, बझंतीसु-बध्यमान प्रकृतियों में, असंखगुणणाए-असंख्यातगुण, सेढीए-श्रेणि से, अपुव्वाइं-अपूर्वकरणादि, छुभंति-संक्रमित करते हैं, गुणसंकमो-गुणसंक्रम एसो—यह । गाथार्थ----(अबध्यमान) अशुभ प्रकृतियों के प्रदेशाग्र को बध्यमान प्रकृति में असंख्यात गुणश्रेणि से अपूर्वकरण आदि जीव जो संक्रमित करते हैं, यह गुणसंक्रम कहलाता है। विशेषार्थ-अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों के दलिकों को अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवी जीव प्रति समय असंख्य गुणश्रेणि से बध्यमान प्रकृतियों में जो संक्रमित करते हैं, वह गुणसंक्रम है। पूर्व-पूर्व समय से उत्तर-उत्तर समय में असंख्य-असंख्य गुणाकार रूप से जो संक्रम वह गुणसंक्रम, यह गुणसंक्रम शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है। __ अपूर्वकरण आदि गुणस्थान से जिन अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है, वे इस प्रकार हैं-मिथ्यात्व, आतप और नरकायु को छोड़कर मिथ्यादृष्टि के बंधयोग्य तेरह तथा अनन्तानुबंधिचतुष्क, तिर्यंचायु और उद्योत को छोड़कर शेष ससादनगुणस्थानयोग्य उन्नीस तथा अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क रूप आठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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