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________________ १८० पंचसंग्रह : ७ कषाय, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति, शोक, अरति, असातावेदनीय इन चौदह प्रकृतियों को मिलाने पर कुल छियालीस अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों का अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों से गुणसंक्रम होता है। ऊपर जो प्रकृतियां छोड़ी हैं, उनके छोड़ने का कारण यह है कि मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधिचतुष्क को अपूर्वकरणगुणस्थान प्राप्त होने के पूर्व ही अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानवी जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करते हुए क्षय करते हैं । आतप, उद्योत शुभ प्रकृतियां हैं, अतः उनका गुणसंक्रम नहीं होता है तथा आयु का परप्रकृति में संक्रम नहीं होता है, इसीलिये मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का निषेध किया है। निद्राद्विक, उपघात, अशुभवर्णादि नवक, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा इन अशुभ प्रकृतियों का अपूर्वकरणगुणस्थान में जिस समय बंधविच्छेद हाता है, उसके बाद से गुणसंक्रम होता है।। इस प्रकार अपूर्वकरणगुणस्थान से जिन प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है, उनके नाम जानना चाहिये। ____ अब गुणसंक्रम का दूसरा अर्थ कहते हैं-अपूर्वकरण आदि संज्ञा वाले करण की अर्थात् सम्यक्त्वादि प्राप्त करते जो तीन करण होते हैं, उनमें के अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की प्रवृत्ति जब से होती है, तब से अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों के दलिकों को असंख्यात गुणश्रेणि से बध्यमान प्रकृतियों में जो प्रक्षेप किया जाता है, उसे भी गुणसंक्रम कहते हैं। गुणसंक्रम का ऐसा भी अर्थ होने से क्षपणकाल में मिथ्यात्व, मिश्रमोहनीय और अनन्तानुबंधिचतुष्क का अपूर्वकरण रूप करण से लेकर गुणसंक्रम होता है, इसमें कोई विरोध नहीं है । किन्तु अबध्यमान समस्त अशुभप्रकृतियों का गुणसंक्रम तो आठवें गुणस्थान से ही होता है। १ इन करणों में भी चौथे से सातवें गुणस्थान तक में मिश्रमोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और अनन्तानुबंधिचतुष्क का गुणसंक्रम होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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