Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६ उद्वलनासंक्रम प्रवृत्त होता है, उस प्रकृति के चरम खंड का चरमसमय में पूर्ण रूप से पर में जो प्रक्षेप होता है, उसे सर्वसंक्रम कहते हैं ।
इस प्रकार से सर्वसंक्रम का स्वरूप जानना चाहिये। अब किस संक्रम को रोक कर कौन-सा संक्रम प्रवृत्त हो सकता है, इसका विचार करते हैं। परस्पर वाधक संक्रम
बाहिय अहापवत्तं सहेउणाहो गुणो व विज्झाओ । उच्दलणसंकमसवि करिणो चरिनम्मि खंडम्मि ॥७॥
शब्दार्थ-बाहिय-बाधित कर, रोककर, अहापवत्तं-यथाप्रवृत्तसंकम को, सहेउणाहो--अपने हेतु के द्वारा, गुणो—गुणसंक्रम, व-अथवा, विज्झाओ-विध्यातसंक्रम, उव्वलणसंकमस्सवि-उद्वलनासंक्रम के भी, कसिगो-सर्वसंक्रम, चरिमम्मि खंडम्मि-चरम खंड में :
गाथार्थ-स्व हेतु के सामर्थ्य से यथाप्रवृत्तसंक्रम को रोक कर गुणसंक्रम अथवा विध्यातसंक्रम प्रवृत्त होता है। उद्वलनासंक्रम के चरमखंड में चरमप्रक्षेप रूप सर्वसंक्रम भी होता है।
विशेषार्थ-अपने गुण या भव रूप निमित्त को प्राप्त करके अबंध होने रूप हेतु की प्राप्ति---संबन्ध के सामर्थ्य द्वारा यथाप्रवृत्तसंक्रम को रोककर गुणसंक्रम या विध्यातसंक्रम प्रवृत्त होता है। यथाप्रवृत्तसंक्रम सामान्य है, जिससे गुण या भव रूप हेतु के द्वारा कर्मप्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के पश्चात् विध्यातसंक्रम या गुणसंक्रम प्रवृत्त होता है । अतएव यथाप्रवृत्तसंक्रम को बाध कर, उसको हटा कर गुणसंक्रम या विध्यातसंक्रम प्रवृत्त होता है तथा सर्वसंक्रम उद्वलनासंक्रम के चरमखंड का चरमप्रक्षेप रूप है। इसलिये यह सर्वसंक्रम भी उद्वलनासंक्रम को हटा कर प्रवृत्त होता है, यह समझना चाहिये ।।
१ प्रदेशसंक्रम के उक्त पांच भेदों में संकलित प्रकृतियों की सूची परिशिष्ट
में देखिये।
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