Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७२
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स्थानों में प्रक्षिप्त किये जाते हैं । उनमें जितने पर में गये वे तो कम ही हुए, परन्तु नीचे स्वस्थान में जो गये, वे तो कम न होकर जो प्रकृति उद्वेलित होती है, उसी के अपने नीचे के स्थानों को पुष्ट करने वाले होते हैं । उवलनासंक्रम का यह क्रम है । द्विचरम स्थितिखंडपर्यन्त तो इस रीति से स्व और पर में दलिकनिक्षेप होता है, परन्तु अंतिम खंड का दलिक तो स्वयं उद्वेलित होने से नीचे अपने में दल प्रक्षेप का कोई स्थितिस्थान नहीं होने से पर में ही प्रक्षिप्त करके निःशेष किया जाता है और वह प्रकृति निर्मूल होती है ।
पहले समय में नीचे स्वस्थान में जो दलिक निक्षिप्त किया गया उससे दूसरे समय में स्वस्थान में नीचे जो दलिक प्रक्षिप्त किया जाता है, वह असंख्यातगुणा होता है और पहले समय में पर में जो दलिक प्रक्षिप्त किया, उससे दूसरे समय में जो दलिक पर में प्रक्षिप्त किया जाता है, वह विशेषहीन होता है, उससे भी तीसरे समय में स्वस्थान में जो दलिक प्रक्षिप्त किया जाता है, वह दूसरे समय में स्वस्थान में प्रक्षिप्त किये गये दलिक से असंख्यातगुण है और तीसरे समय में परप्रकृति में जो प्रक्षिप्त किया जाता है, वह दूसरे समय में परस्थान में प्रक्षिप्त किये गये दलिक से विशेषहीन है । इस प्रकार पूर्व - पूर्व समय में स्वस्थान में जो दलिक प्रक्षिप्त किया जाता है उससे उत्तरोत्तर समय में स्वस्थान में असंख्यातगुण प्रक्षिप्त किया जाता है तथा पूर्वपूर्व समय में परस्थान में जो प्रक्षिप्त किया जाता है- पररूप किया जाता है, उससे उत्तरोत्तर समय में परस्थान में हीन-हीन प्रक्षिप्त किया जाता है - अन्य रूप हीन-हीन किया जाता है । इस प्रकार अन्तमुहूर्त अथवा जो एक स्थितिखंड को उत्कीर्ण करने का काल है, उसके चरमसमयपर्यन्त कहना चाहिये ।
इस प्रकार से द्विचरमखंड तक के समस्त स्थितिखंडों को उतकर्ण करने की विधि जानना चाहिये ।
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