Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७५
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पद अन्य का उपलक्षण रूप होने से क्षायिक सम्यक्त्व उपजित करते हुए चौथे से सातवें गुणस्थान तक के जीव अनन्तानुबंधि, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय को भी अन्तर्मुहर्त काल में उद्वलित करते हैं । इस गाथा में तेरह प्रकृतियों की उद्वलना के स्वामियों का निर्देश किया है।
यहाँ जितनी प्रकृतियों के लिये उद्वलना का अन्तमुहूर्त काल बताया है, उनके सिवाय शेष अन्य प्रकृतियों के लिये पल्योपम का असंख्यातवें भाग प्रमाण उद्वलना का काल समझना चाहिये। इसी प्रसंग में यह भी जान लेना चाहिये कि ७४वीं गाथा में उनचास और ७५वीं गाथा में तेरह कुछ बासठ प्रकृतियों के स्वामियों का निर्देश किया हैं। उनमें से मिश्रमोहनीय पहले गुणस्थान में और क्षायिक सम्यक्त्व उपाजित करते हुए भी उद्वलित की जाती है और नरकद्विक का एकेन्द्रिय में तथा नौवें गुणस्थान में भी उद्वलन होता है। इसलिये इन तीन प्रकृतियों को दो बार न गिनकर एक बार ही लेने से कुल बासठ प्रकृतियों में से तीन प्रकृतियों को कम करने पर उनसठ होती हैं तथा ७४वी गाथा में बंधन के पन्द्रह भेद की विवक्षा से आहारकसप्तक को लिया है, जब कि ७५वीं गाथा में बंधन के पांच भेदों की विवक्षा करके वैक्रियचतुष्क को ग्रहण किया है। यदि दोनों स्थानों पर बंधन के पन्द्रह भेदों की विवक्षा की जाये तो ७४वीं गाथा में कही गई उनचास और ७५वीं गाथा में बताई गई सोलह को मिलाने पर पैंसठ प्रकृति होती हैं। उनमें से मिश्र और नरकद्विक को कम करने पर बासठ प्रकृतियां उद्वलनायोग्य होती हैं और यदि दोनों स्थानों पर पांच बंधन की विवक्षा की जाये तो गाथा ७४ में कही गई छियालीस
और गाथा ७५ में कहीं गई तेरह कुल उनसठ प्रकृतियों में से मिश्रमोहनीय और नरकद्विक को कम करने पर छप्पन प्रकृतियां उद्वलनायोग्य होती हैं । उद्वलनयोग्य इतनी ही प्रकृतियां हैं। अन्य प्रकृतियां उद्वलनासंक्रम योग्य नहीं हैं।
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