Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम अदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६
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बंधती हुई असाता रूप में अथवा असाता के परमाणुओं को बंधती हुई साता रूप करे तो वह सब प्रदेशसंक्रम कहलाता है। अर्थात् विध्यातादि संक्रमों द्वारा कर्मपरमाणुओं को जो अन्य प्रकृति रूप किया जाता है, उसे प्रदेशसंक्रम कहते हैं।
इस प्रकार सामान्य से प्रदेशसंक्रम का लक्षण और उसके भेद जानना चाहिये। अब पूर्वोक्त पांचों भेदों में से क्रमानुसार पहले विध्यातसंक्रम का स्वरूप बतलाते हैं।
विध्यातसंक्रम
जाण न बंधो जायइ आसज्ज गुणं भवं व पगईणं ।
विज्झाओ ताणंगुलअसंखभागेण अण्णत्थ ॥६६॥ शब्दार्थ-जाण न बंधो जायइ-जिनका बंध नहीं होता हो, आसज्ज गुणं भवं व---गुण अथवा भव के आश्रय से, पगईणं--प्रकृतियों का, विज्झाओ-विध्यातसंक्रम, ताणंगुलअसंखभागेण-उनको अंगुल के असंख्यातवें भाग के द्वारा, अण्णत्थ-अन्यत्र (परप्रकृतिरूप)।
गाथार्थ:-जिन कर्मप्रकृतियों का गुण अथवा भव के आश्रय से बंध न होता हो, उन प्रकृतियों का विध्यातसंक्रम होता है । प्रथम समय में विध्यातसंक्रम द्वारा जितना दलिक परप्रकृति में संक्रमित किया जाता है, उस प्रमाण से शेष दलिकों को भी संक्रमित किया जाये तो उनको अंगुल के असंख्यातवें भाग में विद्यमान आकाश प्रदेश जितने समयों द्वारा संक्रान्त किया जाता है ।
विशेषार्थ-संक्रम का सामान्य लक्षण तो प्रकरण के प्रारंभ में कहा जा चुका है और प्रदेशसंक्रम द्वारा सत्तागत कर्मपरमाणुओं को अन्य स्वरूप किया जाता है । वे कर्मपरमाणु अन्य स्वरूप कैसे होते हैं, यह प्रदेशसंक्रम के पांचों भेदों का स्वरूप जानने से समझा जा सकेगा। Jain Education International
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