Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
उक्त प्रकृतियों के शेष विकल्प सादि, अध्रुव (सांत) इस तरह दो प्रकार के हैं। जो इस प्रकार जानना चाहिये-अनन्तानुबंधिचतुष्क आदि सत्रह और ज्ञानावरणादि सोलह प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम अतिसंक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि के होता है । उत्कृष्ट अनुभाग का बंधक संक्लिष्ट मिथ्यात्वी है और बंधावलिका के जाने के बाद संक्रमित करता है। अन्तर्मुहूर्त के बाद अनुत्कृष्ट होता है तथा जब उत्कृष्ट रस बांके, तब उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम, तत्पश्चात् अनुत्कृष्ट रससंक्रम होता है। इस प्रकार अदल-बदल के क्रम से होने के कारण वे दोनों सादि-सांत हैं । जघन्य के सादि, अध्र व (सांत) होने के सम्बन्ध में पहले विचार किया जा चुका है तथा शुभ ध्र व चौबीस प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग संक्रम जिसने बहुत से रस की सत्ता का नाश किया है, ऐसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय के होता है। जब तक उस प्रकार के बहुत से रस की सत्ता का नाश न किया हो, तब तक उसे भी अजघन्य रससंक्रम होता है, इसलिये वे दोनों भी सादि-अध्र व (सांत) हैं। उत्कृष्ट विषयक विचार तो अनुत्कृष्ट के भंग कहने के प्रसंग में किया जा चुका है।
शेष प्रकृतियों में से शुभ प्रकृतियों का विशुद्ध परिणाम से और अशुभ प्रकृतियों का संक्लेश परिणाम से उत्कृष्ट अनुभागबंध संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त को होता है और शेष काल में अनुत्कृष्ट रसबंध होता है। जैसे बंध होता है, उसी प्रकार संक्रम भी होता है, इसलिये वे दोनों सादि-सांत हैं तथा जघन्य अनुभागसंक्रम जिसने बहुत से रस की सत्ता का नाश किया हो ऐसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव के होता है। जब तक उस प्रकार के बहुत से रस की सत्ता का नाश न हुआ हो, तब तक अजघन्य रससंक्रम उस सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अथवा अजघन्य रस की सत्ता वाले अन्य जीवों के भी होता है, इसलिये वे दोनों सादि-सांत है।
इस प्रकार से उत्तर प्रकृतियों के जघन्यादि विकल्पों की सादि-आदि भंगों की प्ररूपणा जानना चाहिये । सुगम बोध के लिये मूल और उत्तर प्रकृतियां के अनुभागसंक्रम की साद्यादि प्ररूपणा का प्रारुप इस प्रकार है
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