Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
सम्भव है, उसके ज्ञान से यह समझ में आ जायेगा कि जघन्य अनुभागसंक्रम कौन करता है।
अब यह स्पष्ट करते हैं कि सम्यग्दृष्टि अशुभ प्रकृतियों और शुभ प्रकृतियों के रस का क्या करता है
सम्मद्दिट्ठी न हणइ सुभाणुभागं दु चेव दिट्ठीणं ।
सम्मत्तमीसगाणं उवकोसं हणइ खवगो उ॥६१॥ शब्दार्थ-सम्मद्दिट्ठी-सम्यग्दृष्टि, न हणइ-कम नहीं करता है, सुभाणुभाग--शुभ अनुभाग को, दु चेव दिट्ठीणं--और दोनों दृष्टियों के, सम्मत्तमीसगाणं-सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय के, उक्कोसं-उत्कृष्ट रस का, हणइ–विनाश करता है, खवगो-क्षपक, उ--और।
गाथार्थ- सम्यग्दृष्टि शुभ अनुभाग को कम नहीं करता है तथा सम्यक्त्व एवं मित्र मोहनीय इन दो दृष्टियों के उत्कृष्ट रस का क्षपक विनाश करता है। विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टि सातावेदनीय, देवद्विक, मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, प्रथम संस्थान और संहनन, औदारिकसप्तक, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, तैजससप्तक, शुभवर्णादि एकादश, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रसदशक, निर्माण, तीर्थंकर और उच्चगोत्र इन छियासठ पुण्यप्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग का विनाश नहीं करता है परन्तु दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त सुरक्षित रखता है।
यहाँ दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त कहने का कारण यह है कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का छियासठ सागरोपम उत्कृष्ट निरंतर काल है। उतने काल तक जीव सम्यक्त्व का पालन कर अन्तर्मुहूर्त के लिये मिश्र में जाकर पुनः दूसरी बार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है और उसे भी छियासठ सागरोपम पर्यन्त सुरक्षित रखता है।
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