Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६०
शब्दार्थ-सेसाणं-शेष, असुभाणं-अशुभ प्रकृतियों का, केवलिणोकेवली को, जो उ–जो भी, होइ-होता है, अणुभागो-अनुभाग, तस्सउसका, अणंतो भागो-अनन्तवां भाग, असण्णिपंचेंदिए-असंज्ञी पंचेन्द्रिय को, होइ-होता है।
· गाथार्थ-शेष अशुभ प्रकृतियों का केवली के जो अनुभाग होता है, उसका अनन्तवां भाग असंज्ञी पंचेन्द्रिय के होता है। विशेषार्थ---शेष अशुभ प्रकृतियों का अर्थात् असातावेदनीय, प्रथम को छोड़कर पांच संस्थान और पांच संहनन, अशुभ वर्णादि नवक, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अस्थिर, अशुभ, अपर्याप्त, अयश:कीति और नीचगोत्र रूप तीस अघाति अशुभ प्रकृतियों का केवली भगवन्तों को सत्ता में जो अनुभाग होता, उसका अनन्तवां भाग असंज्ञी पंचेन्द्रिय के सत्ता में होता है।
इसका तात्पर्य यह है कि असंज्ञी पंचेन्द्रिय के अनुभाग से केवली के उक्त अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग अनन्तगुणा होता है। जो अनुभाग जिसके अनन्तवें भाग हो उससे वह अनन्तगुण होता है, यानि कि सर्वघाति अथवा देशघाति प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग का संक्रम क्षपक के अन्तरकरण करने के बाद जानना चाहिये और शेष असातावेदनीय आदि अशुभ अघातिप्रकृतियों का अनुभागसंक्रम सयोगिकेवली को नहीं, किन्तु जिसके रस की सत्ता का अधिक नाश हो गया है, ऐसे सूक्ष्म एकेन्द्रियादि के जानना चाहिये। जिसका स्पष्टीकरण आगे किया जा रहा है
यहाँ एक बात ध्यान में रखना चाहिये कि मिथ्यादृष्टि शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को संक्लेश द्वारा और अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को विशुद्धि द्वारा अन्तमुहुर्त के बाद अवश्य नाश करता है, यह पूर्व में कहा जा चुका है। अतएव जघन्य अनुभाग किसको
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