Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७ संक्रमकाल में यत्स्थिति संक्रमित होने वाली स्थिति से एक आवलिका अधिक है।
स्त्रीवेद और नपुसकवेद के पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण चरम खंड को अंतरकरण में रहते हुए संक्रमित करता है । अन्तरकरण में कर्मदलिक नहीं हैं, परन्तु ऊपर दूसरी स्थिति में हैं । अन्तरकरण का काल अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है, जिससे अन्तर्मुहूर्त सहित पल्योपम का असंख्यातवां भाग स्त्रीवेद, नपुसकवेद की यत्स्थिति है।
इस प्रकार से जघन्य स्थितिसंक्रम का प्रमाण, यत्स्थिति और स्वामित्व प्ररूपणा का कथन जानना चाहिये। अब साद्यादि प्ररूपणा करने का अवसर प्राप्त है । उसके दो प्रकार हैं-१ मूलप्रकृति सम्बन्धी
और २ उत्तरप्रकृतिसम्बन्धी। दोनों में से पहले मूलप्रकृति सम्बन्धी सादि आदि की प्ररूपणा करते हैं । मूलप्रकृति सम्बन्धी साद्यादि प्ररूपणा
मूल ठिईण अजहन्नो सत्तण्ह तिहा चतुविहो मोहे ।
सेस विगप्पा साई अधुवा ठितिसंकमे होंति ॥५०॥ शब्दार्थ-मूल ठिईण अजहन्नो-मूल प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिसंक्रम, सत्तह-सात का, तिहा–तीन प्रकार का, चतुस्विहोमोहे---मोहनीय का चार प्रकार का, सेस विगप्पा--शेष विकल्प, साई अधुवा--सादि, अध्र व, ठितिसंकमे--स्थितिसंक्रम में, होंति--होते हैं।
गाथार्थ-मोहनीय को छोड़कर शेष सात मूल प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिसंक्रम तीन प्रकार का और मोहनीय का चार प्रकार का है तथा शेष विकल्प सादि अध्र व इस तरह दो प्रकार के हैं।
१. उत्कृष्ट, जघन्य स्थितिसक्रम के प्रमाण, यस्थिति, स्वामित्व का
प्रारूप परिशिष्ट में देखिये ।
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