Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५२
गाथार्थ-अनुभागसंक्रम भी स्थितिसंक्रम की तरह उद्वर्तनादि भेद से तीन प्रकार का जानना चाहिये तथा घातित्व आदि विशेष नाम रस के कारण से समझना चाहिये।
विशेषार्थ-अनुभागसंक्रम के दो प्रकार हैं-१. मूलप्रकृतियों के अनुभाग का संक्रम २. उत्तरप्रकृतियों के अनुभाग का संक्रम। मूल प्रकृतियों के अनुभाग का संक्रम ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि के भेद से आठ प्रकार का है तथा उत्तरप्रकृतियों के अनुभाग का संक्रम मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण यावत् वीर्यान्तराय पर्यन्त एक सौ अट्ठावन प्रकार का है। मूल और उत्तरप्रकृतियों के रस का संक्रम होता है, जिससे उसके भी आठ और एक सौ अट्ठावन भेद होते हैं।
इस प्रकार से भेदप्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब विशेषलक्षण का कथन करते हैं---
स्थितिसंक्रम की तरह रससंक्रम के भी उद्वर्तना, अपवर्तना और प्रकृत्यन्तरनयनसंक्रम रूप तीन भेद हैं। सत्ता में रहे हुए अल्प रस में वृद्धि करना उद्वर्तना, सत्ता में विद्यमान रस को कम करना अपवर्तना और विवक्षित प्रकृति के रस को बध्यमान अन्यप्रकृति के रस रूप करना प्रकृत्यन्तरनयनसंक्रम कहलाता है। अर्थात् सत्ता में विद्यमान रस की जो वृद्धि, हानि होती है और एक रूप में रहा हुआ रस अन्य स्वरूप में जैसे कि सातावेदनीय का असातावेदनीय रूप में होना। ये सब संक्रम के ही प्रकार हैं।
इस प्रकार से अनुभागसंक्रम का विशेष लक्षण जाना चाहिये । अब रसस्पर्धक की प्ररूपणा करते हैं
रसस्पर्धक सर्वघाति, देशघाति और अघाति इस तरह तीन प्रकार के हैं। उनमें से अपने द्वारा घात किया जा सके, दबाया जा सके ऐसे केवलज्ञानादि गुण का जो सर्वथा घात करें, उन्हें सर्वघातिरसस्पर्धक कहते हैं । अपने द्वारा घात किया जा सके ऐसे ज्ञानादि गुण के मति
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