Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-ग्ररूपणा अधिकार : गाथा ५५
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स्वभाव से द्विस्थानक रस ही संक्रमित होता है तथा इन प्रकृतियों का रस अघाति है, जिससे स्वभावतः ही आत्मा के किसी गुण को आवृत नहीं करती हैं। लेकिन सर्वघाति अन्यान्य प्रकृतियों के रस के सम्बन्ध से वे सर्वधाति हैं, अघाति नहीं हैं। इसीलिये ऐसी प्रकृतियों को सिद्धान्त में सर्वघातिप्रतिभाग अर्थात् सर्वघातिसदृश कहा है, परन्तु सर्वघाति नहीं। क्योंकि घातिप्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने के बाद तेरहवें गुणस्थान में वर्तमान चार अघाति कर्मों का अनुभाग आत्मा के किसी भी गुण का घात नहीं करता है। यदि अपने स्वभाव से ही सर्वघाति होता ता केवलज्ञानावरणादि के समान आत्मा के गुणों को आच्छादित करता।
सम्यक्त्वमोहनीय का एकस्थानक और मन्द द्विस्थानक तथा देशघाति रस संक्रमित होता है, अन्य प्रकार का नहीं और इसका कारण है उसमें अन्य प्रकार का रस होना असम्भव है।
उपर्युक्त प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों के बारे में इसी ग्रंथ के तीसरे बंधव्य अधिकार में बंध की अपेक्षा जैसा एकस्थानक एवं सर्वघाति आदि रस कहा है, यहाँ संक्रम के संदर्भ में भी उसी प्रकार का रस जानना चाहिये। जितना एवं जैसा बंधता है, उतना और वैसा ही संक्रमित होता है।
इस प्रकार सामान्य से रस का संक्रम जानना चाहिये। अब यहाँ उत्कृष्ट और जघन्य रस के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। संक्रमापेक्षा उत्कृष्ट रस
दुट्ठाणो च्चिय जाणं ताणं उक्कोसओ वि सो चेव । संकमइ वेयगे वि हु सेसासुक्कोसओ परमो ॥५५॥ शब्दार्थ-दुट्ठाणो---द्विस्थनाक, च्चिय-ही, जाणं-जिनका, ताणंउनका, उक्कोसओ--उत्कृष्ट से, वि---भी, सो चेव-वही, संकमइ---संक्रमित
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