Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१००
पंचसंग्रह : ७ में संक्रमित नहीं करता है। जिससे उसमें एक अपवर्तनासंक्रम ही होता है। स्थिति को कम करने रूप अपवर्तनासंक्रमण स्व में ही होता है । इस प्रकार सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति का संक्रम दो आवलिका अधिक अन्तर्मुहूर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होता है और उनका स्वामी वेदक सम्यग्दृष्टि है।
देवायु, जिननाम और आहारकसप्तक के सिवाय शेष बंधोत्कृष्टा अथवा संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों के उन-उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बांधने वाले उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम के स्वामी हैं और वे प्रायः संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव ही हैं तथा देवायु की उत्कृष्ट स्थिति के संक्रम का स्वामी अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के सन्मुख हुआ प्रमत्तसंयत है । पूर्व में जिसने जिननामकर्म बांधा हो ऐसा नरक के सन्मुख हआ मिथ्यादृष्टि जिननाम की उत्कृष्ट स्थिति के संक्रम का स्वामी है तथा आहारकसप्तक की उत्कृष्ट स्थिति प्रमत्तगुणस्थान के अभिमुख हुआ अप्रमत्तसंयत बांधता है और वह बंधावलिका के जाने के बाद संक्रमित करता है।
इस प्रकार से समस्त प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के संक्रम के स्वामी जानना चाहिये।
१. यहाँ प्रायः शब्दप्रयोग का संभव कारण यह हो सकता है कि जिन परि
णामों से मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति बांधे वैसे परिणामों से अन्य ज्ञानावरणादि की भी उत्कृष्ट स्थिति बंध सकती है। जैसे मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता लेकर चौथे गुणस्थान में जाता है और वहाँ अन्तर्मुहुर्त न्यून उत्कृष्ट स्थिति संक्रमित करता है, वैसे ही अन्तर्मुहूर्त न्यून उत्कृष्ट स्थिति का संक्रम हो सकता है । तत्त्व केवलिगम्य है। आहारकसप्तक की उत्कृष्ट स्थिति के संक्रम का स्वामी प्रमत्तसंयत है, क्योंकि अप्रमत्तसंयतगुणस्थान से प्रमत्तसंयतगुणस्थान में जाते हुए के उसकी उत्कृष्ट स्थिति बंधती है, ऐसा प्रतीत होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org