Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१
७५
संहनन, मनुष्यद्विक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर अस्थिर में से कोई एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्तिअयशः कीर्ति में से एक, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति और तीर्थंकरनाम रूप मनुष्यगतियोग्य तीस कर्मप्रकृतियों का बंध करने पर एक सौ तीन की सत्ता वाले सम्यग्दृष्टि देव के बंधती हुई इन तीस प्रकृतियों में एक सौ तीन प्रकृतियां संक्रमित होती हैं ।
देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियअंगोपांग, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, तैजस, कार्मण, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और आहारकद्विक रूप देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने पर एक सौ दो प्रकृतियों की सत्ता वाला अप्रमत्तसंयत अथवा अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव उन बंधने वाली तीस प्रकृतियों में एक सौ दो प्रकृतियां संक्रमित करता है । अथवा
तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, वर्णादिचतुष्क, तिर्यचद्विक, द्वीन्द्रियादिजाति में से कोई एक जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, यशः कीर्ति अयशः कीर्ति में से एक, औदारिकद्विक, कोई भी एक संस्थान, कोई भी एक संहनन, 1 अप्रशस्त विहायोगति, पराघात, उच्छ्वास और उद्योत रूप द्वीन्दियादि तिर्यंचों के योग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने पर एक सौ दो प्रकृतियों की सत्ता वाले एकेन्द्रियादि
१. यदि यहाँ द्वीन्द्रियादिक में बताये गये आदि शब्द से संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच सिवाय को तिर्यंच जीवप्रायोग्य तीस प्रकृतियां बताई हों तो संहनन और संस्थान छह में से चाहे जो न लेकर सेवार्तसंहनन और हुडकसंस्थान लेना चाहिये और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचप्रायोग्य प्रकृतियां भी बताई हों तो छह संहनन, छह संस्थान की तरह वहाँ घटित प्रतिपक्षी सभी प्रकृतियों का भी ग्रहण होना चाहिये । यह विचारणीय है ।
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