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पंचसंग्रह : ७
विशेषार्थ-देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपाग, समचतुरस्रसंस्थान, देवानुपूर्वी, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, तैजस, कार्मण, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थंकर और आहारकहिक रूप इकतीस प्रकृतियों का बंध करता हुआ अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत जीव उन इकतीस में प्रथमसत्ताचतुष्क (१०३, १०२, ६६, ६५ प्रकृतिक) रूप चार संक्रमस्थानों को संक्रमित करता है। उनमें तीर्थकरनाम और आहारकद्विक की बंधावलिका बीतने के बाद एक सौ तीन संक्रमित करता है । जिसे तीर्थकरनाम की बंधावलिका न बीती हो परन्तु आहारकसप्तक की बीत गई हो वह एक सौ दो इकतीस में संक्रमित करता है। तीर्थंकरनाम की बंधावलिका बीत गई हो परन्तु आहारकसप्तक की न बीती हो, वह छियानवै संक्रमित करता है और तीर्थकरनाम तथा आहारकसप्तक इन दोनों की बंधावलिका जिसके न बीती हो, वह पंचानवै प्रकृतियां बंधने वाली इकतीस प्रकृतियों में संक्रनित करता है। ___ अध्र वसत्तात्रिक के साथ प्रथमसत्ताचतुष्क उनतीस और तीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमित करता है। अर्थात् उनतीस और तीस प्रकृति रूप पतद्ग्रहस्थानों में एक सौ तीन, एक सौ दो, छियानवै, पंचानवै, तेरानवै, चौरासी और वयासी प्रकृति रूप सात-सात संक्रमस्थान संक्रमित करता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है---
तैजस, कार्मण, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराच
१. तीर्थंकरनाम का निकाचित बंध होने के बाद प्रतिसमय चौथे से आठवें
गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त तीर्थकरनाम अवश्य बंधता रहता है । इसी प्रकार आहारकद्विक के बंधने के बाद सातवें से आठवें गुणस्थान के छठे
भाग तक भी आहारकद्विक प्रतिसमय बंधता रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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