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पंचसंग्रह : ७
स्थानों में संक्रमित हो सकते हैं। मनुष्य भी तेईस आदि तीन बंधस्थानों को बांध सकते हैं। जिससे वे जब बंधे तब उपर्युक्त एक सौ दो आदि प्रकृतिस्थानों में के जो सत्ता में हों, वे संक्रमित हो सकते हैं।
तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, वर्णादिचतुष्क, एकेन्द्रियजाति, हुडकसंस्थान, औदारिकशरीर, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावर, बादर-सूक्ष्म में से एक, पर्याप्तनाम, प्रत्येक-साधारण में से एक, स्थिर-अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, दुर्भग, अनादेय, यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति में से एक, पराघात और उच्छ्वास रूप एकेन्द्रियप्रायोग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंध करने पर और एक सौ दो प्रकृतिक आदि पांच में से कोई एक प्रकृतिस्थान की सत्ता वाले एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्दिय आदि जीव उस पच्चीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में एक सौ दो, पंचानवै, तेरानवै, चौरासी और ब्यासी प्रकृतिक ये पांच संक्रमस्थान संक्रमित करते हैं । अथवा
तैजस, कार्मण, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, द्वीन्द्रियादि कोई एक जाति, हुडकसंस्थान, सेवार्तसंहनन, औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, त्रस, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्ति रूप अपर्याप्त विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य योग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंध करने पर और एक सौ दो आदि उपर्युक्त पांच प्रकृतिस्थानों की सत्ता वाले एकेन्दिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य पच्चीस प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में एक सौ दो आदि प्रकृतिक पांच संक्रमस्थान संक्रमित करते हैं।
१. यहाँ इतना विशेष है कि देवों के एक सौ दो और पंचानवै तथा मनुष्यों
के वयासी प्रकृतिक सिवाय शेष संक्रमस्थान होते हैं। २. परन्तु मनुष्य योग्य पच्चीस प्रकृतियां बांधने पर वयासी के बिना शेष
चार संक्रमस्थान होते हैं।
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