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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१
७३ तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, वर्णादिचतुष्क, एकेन्द्रियजाति, हुडकसंस्थान, औदारिकशरीर, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावर, पर्याप्त, बादर, प्रत्येक स्थिर-अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, दुर्भग, अनादेय, यश:कीति-अयशःकीति में से एक, पराघात, उच्छ्वास और आतप-उद्योत में से एक, इस तरह एकेन्द्रियप्रायोग्य छब्बीस प्रकृतियों का बंध करने पर और एक सौ दो और पंचानवै की सत्ता वाले नारकी को छोडकर एकेन्द्रियादि सभी जीव उस छब्बीस प्रकृतिक स्थान में एक सौ दो और पंचानवै संक्रमित करते हैं तथा छब्बीस प्रकृतियों को बांधने पर तेरान और चौरासी की सत्ता वाले देव और नारक बिना शेष एकेन्द्रियादि जीव छब्बीस में तेरानवै और चौरासी प्रकृतियां संक्रमित करते हैं। तथा
बयासी की सत्ता वाले और छब्बीस प्रकृतियों को बांधने पर देव, नारक और मनुष्य वर्जित वे एकेन्द्रियादि जीव छब्बीस में वयासी प्रकृतियां संक्रमित करते हैं।
इस प्रकार से तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमित हाने वाले संक्रमस्थानों का जानना चाहिये । अब शेष पतद्ग्रहस्थानों में संक्रमस्थानों का विचार करते हैं
पढमं संतचउवकं इगतीसे अधुवतियजुयं तं तु ।
गुणतीसतीसएसु जसहीणा दो चउक्क जसे ॥३१॥ शब्दार्थ---पढमं संतचउक्कं प्रथम सत्ताचतुष्क, इगतीसे—इकतीस में, अधुवतियजुयं-अध्र वसत्तात्रिक के साथ, तं-वह (प्रथम सत्ताचतुष्क), तुऔर, गुणतीसतीसएसु-उनतीस तीस में, जसहीणा—यशःकीति हीन, दो चउक्क-दो चतुष्क, जसे-यशःकीति में ।
गाथार्थ-प्रथमसत्ताचतुष्क इकतीस में संक्रमित होता है। अध्र वसत्तात्रिक के साथ वह (प्रथमसत्ताचतुष्क) उनतीस और तीस में तथा यश:कीर्ति हीन दो चतुष्क यश:कीर्ति में संक्रान्त होते हैं।
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