Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
अर्थात् एक आवलिकान्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम घटित हो सकती है, तब फिर यह क्यों कहा है कि तीर्थकरनाम और आहारकसप्तक की संक्रम द्वारा भी उत्कृष्ट स्थिति अंतःकोडाकोडी सागरोपमप्रमाण ही होती है ?
उत्तर-यह प्रश्न तभी सम्भव है जब तीर्थंकरनाम और आहारकसप्तक बंधता हो तब उसमें संक्रमित होने योग्य प्रकृति की सत्ता बीस कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण हो, परन्तु वैसा है नहीं। क्योंकि आयुकर्म के सिवाय किसी भी कर्मप्रकृति की स्थिति की सत्ता सम्यग्दृष्टि जीव के अंतः कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण ही होती है, इससे अधिक नहीं । इसलिये संक्रम भी उतनी ही स्थिति का होता है।
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि तीर्थंकरनाम और आहारकसप्तक में उनके बंधकाल में अन्य प्रकृति की स्थिति संक्रमित होती है अन्यकाल में नहीं। इन प्रकृतियों का बंध क्रमशः विशुद्ध सम्यग्दृष्टि और संयत जीवों के ही होता है । उनको आयु के सिवाय समस्त कर्मों की सत्ता अन्तःकोडाकोडी सागरोपमप्रमाण ही होती है, इससे अधिक नहीं है। इसीलिये संक्रम भी उतनी ही स्थिति का होता है । यदि उनको अंतःकोडाकोडी से अधिक बंध होता तो अधिक स्थिति की सत्ता संभव हो सकती है, परन्तु बंध ही अंतःकोडाकोडी सागरोपम का होता है, अधिक होता नहीं। मात्र बंध से सत्ता संख्यातगुणी होती है। इसका पूर्व में संकेत किया जा चुका है।
आयुकर्म की चारों प्रकृतियां बंधोत्कृष्टा समझना चाहिये, संक्रमोत्कृष्टा नहीं। क्योंकि उनमें परस्पर या अन्य किसी भी कर्मप्रकृति के दलिकों का संक्रम नहीं होता है।
कदाचित् यहाँ प्रश्न हो कि मनुष्य, तिथंच आ3 का तो स्वमूलकर्म के समान बंध नहीं होने से उनको बंधोत्कृष्टा क्यों माना है ? तो इसके लिये समझना चाहिये कि यदि संक्रमोत्कृष्टा माना जाये तो यह भ्रम हो सकता है कि आयु में अन्य प्रकृति के दलिकों का संक्रम
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