Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
असातावेदनीय, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, तैजससप्तक, औदारिकसप्तक, वैक्रिय सप्तक, नीलवर्ण और कटुरस वर्जित शेष अशुभवर्णादि सप्तक, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, निर्माण, हुडकसंस्थान, सेवार्तसंहनन, अशुभविहायोगति, स्थावरनाम, त्रसचतुष्क, अस्थिरषट्क, नीचगोत्र, सोलह कषाय और मिथ्यात्व कुल मिलाकर ये सत्तानवं कर्मप्रकृतियां अपने बंधकाल में अपने मूलकर्म के समान उत्कृष्ट स्थितिबंध हो सकने से बंधोत्कृष्टा कहलाती हैं।
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बंधोत्कृष्ट प्रकृतियों में मनुष्य और तिर्यंच आयु का ग्रहण किया है । उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध यद्यपि अपने मूलकर्म के समान नहीं होता है, लेकिन आयु में परस्पर संक्रम नहीं होने से संक्रम द्वारा उनकी स्थिति उत्कृष्ट नहीं हो सकती है, इसलिये उनकी बंधोत्कृष्टा में गणना की है । सोलह कषायों को चारित्रमोहनीय रूप मूल कर्म की अपेक्षा समान स्थिति वाली होने से बंधोत्कृष्टा में गिना है ।
ऊपर कही गई प्रकृतियों के अतिरिक्त इकसठ प्रकृतियां संक्रमोत्कृष्टा हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं- सातावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, नव नोकषाय, आहारकसप्तक, शुभवर्णादि एकादश, नीलवर्ण, कटुरस, देवद्विक, मनुष्यद्विक, विकलेन्द्रियत्रिक, आदि के पांच संहनन और आदि के पांच संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, स्थिरषट्क, तीर्थकरनाम और उच्चगोत्र । इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अपने मूल कर्म के समान बंध द्वारा नहीं होती है, किन्तु अपनी स्वजातीय प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति के संक्रम द्वारा होती है, इसलिये इनको संक्रमोत्कृष्टा प्रकृति कहते हैं ।
इस प्रकार से वर्गीकरण करने के पश्चात् अब यह स्पष्ट करते हैं कि इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों की कितनी - कितनी स्थिति अन्यत्र संक्रमित हो सकती है ।
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