Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७ उद्वर्तन कहते हैं और दीर्घकाल पर्यन्त फल देने के लिये व्यवस्थित हुए कर्माणुओं को अल्पकाल पर्यन्त फल देने वाली स्थिति में स्थापित करना अपवर्तन और पतद्ग्रहप्रकृति रूप करना वह अन्यप्रकृतिनयनसंक्रम है। इस प्रकार स्थिति का संक्रम तीन प्रकार का होता है। अर्थात् स्थिति की उद्वर्तना, अपवर्तना होती है तथा अन्य प्रकृति रूप में रही हुई स्थिति अन्य पतद्ग्रहरूप में भी होती है। यह संक्रम बंध हो अथवा न हो तब भी होता है, ऐसा समझना चाहिये।
इनमें भी अन्यप्रकृतिनयनसंक्रम सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय के सिवाय शेष पतद्ग्रह प्रकृतियों का बंध होता हो तभी होता है । अर्थात् जिसमें संक्रम होता है उस प्रकृति के बंध के सिवाय अन्यप्रकृतिनयनसंक्रम नहीं होता है। मात्र सम्यक्त्व एवं मिश्र मोहनीय का बंध नहीं होने से उनका बंध के बिना भी उन दोनों में मिथ्यात्वमोहनीय का और सम्यक्त्वमोहनीय में मिश्रमोहनीय का संक्रम होता है। जैसा कि कहा है
दुसु वेगे दिठ्ठिदुगं बंधेण विणा वि सुद्धदिठिस्स ।
अर्थात सम्यग्दृष्टि जीव के बंध बिना भी दो में और एक में अनुक्रम से मिथ्यात्व का और मिश्र मोहनीय का संक्रम होता है।
उद्वर्तनासंक्रम भी जिस प्रकृति की उद्वर्तना होती है, उसका बंध होता है, वहीं तक ही उद्वर्तना होती है और मात्र अपवर्तनासंक्रम जिसकी अपवर्तना होती है, उसका बंध होता हो या न होता हो, किन्तु प्रवर्तित होता है ।
तात्पर्य यह कि अन्यप्रकृतिनयनसंक्रम पतद्ग्रहप्रकृति के बंध की और उद्वर्तनासंक्रम अपने बंध की अपेक्षा रखता है, किन्तु अपवर्तना बंध की अपेक्षा नहीं रखती है। ___ उक्त स्पष्टीकरण के पश्चात् विशेषलक्षण यह हुआ कि प्रकृति और प्रदेश का तो अन्यप्रकृतिनयनसंक्रम होता है और स्थिति तथा रस में उपर्युक्त तीनों संक्रम प्रवर्तित होते हैं। स्थितिसंक्रम का यह
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