Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५
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स्थितिसंक्रम-लक्षण व भेद
उवट्टणं च ओवट्टणं च पगतितरम्मि वा नयणं ।
बंधे व अबंधे वा जं संकामो इइ ठिईए ॥३५॥ शब्दार्थ-उवट्टणं च ओवट्टणं-उद्वर्तन अथवा अपवर्तन, च–तथा, पतितरम्मि-प्रकृत्यन्तर में, वा-अथवा, नयणं-नयन (परिवर्तन), बंधे व अबंधे वा–बंध हो अथवा न हो, जं-जो, संकामो-संक्रम, इइ-इस प्रकार ठिईए-स्थिति में।
गाथार्थ-उद्वर्तन अथवा अपवर्तन तथा प्रकृत्यन्तरनयन इस प्रकार स्थिति में तीन प्रकार का संक्रम होता है और वह बंध हो अथवा न हो, फिर भी होता है।
विशेषार्थ-प्रकृतिसंक्रम का विचार करने के पश्चात् यहाँ से स्थितिसंक्रम का विवेचन करना प्रारंभ किया है । स्थितिसंक्रम का विचार करने के पांच अधिकार हैं-१. भेद, २. विशेषलक्षण, ३. उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमप्रमाण, ४. जघन्य स्थितिसंक्रमप्रमाण तथा ५. सादि-अनादि प्ररूपणा। उनमें से यहाँ भेद और विशेषलक्षण इन दो का निरूपण करते हैं । भेद का निरूपण इस प्रकार है
भेद अर्थात् प्रकार । स्थिति के संक्रम के दो प्रकार हैं- १. मूल कर्मों की स्थिति का संक्रम, २. उत्तर प्रकृतियों की स्थिति का संक्रम। मूल कर्मों की स्थिति का संक्रम मूल कर्म ओठ होने से आठ प्रकार का है और उत्तर प्रकृति की स्थिति का संक्रम मतिज्ञानावरण से वीर्यान्तराय पर्यन्त उत्तर प्रकृतियां एक सौ अट्ठावन होने से एक सौ अट्ठावन प्रकार का है।
अब विशेष लक्षण का निरूपण करने के लिये कहते हैं
अल्पकाल पर्यन्त फल प्रदान करने के लिये व्यवस्थित हुए कर्माणओं को दीर्घकाल पर्यन्त फल देने योग्य स्थिति में स्थापित करना
१. इसके साथ ही संक्षेप में स्वामित्व का भी संकेत किया जायेगा।
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