Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३३
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स्वभाव, स्थिति और रस का अनुसरण करने वाले होते हैं। तात्पर्य इसका यह है कि जिस कर्मप्रकृति के जितने स्थानक और जितने रस वाले जितने कर्मपरमाणु जिस स्वरूप होते हैं, उतने स्थानक के उतने रस वाले परमाणु उतने काल पर्यन्त उस स्वरूप कार्य करते हैं । यानि जिस समय जिस कर्मप्रकृति के परमाणु पतद्ग्रह रूप होते हैं, उसी समय तद्गत स्वभाव, स्थिति और रस भी उसी रूप ही होता है । जिससे परमाणु में से स्वभाव, स्थिति या रस को खींचकर अन्य में कैसे संक्रान्त किया जा सकता है ? इस प्रश्न को अवकाश ही नहीं रहता है।
अब इसी आशय को विस्तार से स्पष्ट करते हैं
प्रकृति यानि ज्ञानादि गुण को आवृत आदि करने रूप स्वभाव, स्थिति यानि नियतकाल पर्यन्त अवस्थान और वह भी कर्मपरमाणुओं का जीव के साथ अमुक काल पर्यन्त रहने रूप अवधि-मर्यादा विशेष ही है, अनुभाग यानि अध्यवसाय के अनुसार उत्पन्न हुआ आवारक शक्ति रूप रस और इन तीनों के आधारभूत जो परमाणु वे प्रदेश हैं। इस प्रकार होने से परमाणुओं को जब परप्रकृति में संक्रमित करता है और संक्रमित करके जब परप्रकृति रूप करता है, तब प्रकृतिसंक्रम आदि सभी घटित हो सकता है । वह इस प्रकार____संक्रम्यमाण परमाणुओं के स्वभाव को पतद्ग्रहप्रकृति के स्वभाव के अनुरूप करना प्रकृतिसंक्रम है । संक्रमित होते परमाणुओं की अमुक स्थिति काल पर्यन्त रहने रूप मर्यादा को पतद्ग्रहप्रकृति का अनुसरण करने वाली करना स्थितिसंक्रम है, संक्रमित होते परमाणुओं के रस को-आवारक शक्ति को पतद्ग्रहप्रकृति के रस का अनुसरण करने वाला बना देना अनुभागसंक्रम है और परमाणुओं का ही जो प्रक्षेपणसंक्रम वह प्रदेशसंक्रम कहलाता है। अतएव जिस समय प्रदेशों का संक्रम होता है उसी समय तदन्तर्वर्ती स्वभाव आदि भी परिवर्तित हो जाते हैं, अर्थात् पतद्ग्रह का अनुसरण करने वाले हो जाते हैं।
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