Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३३
संक्रमस्थान के स्वामित्व का विचार यानि किस संक्रमस्थान का स्वामी कौन है, उसका विचार संभव प्रमाणानुसार समझ लेना चाहिये। अर्थात् जहाँ जो संभव हो, वह जानना चाहिये और वह प्रायः प्रत्येक संक्रमस्थान के प्रसंग में बताया गया है।
इस प्रकार से नामकर्म के संक्रमस्थानों और पतद्ग्रहस्थानों का किस पतद्ग्रहस्थान में कौन-कौन संक्रमस्थान संक्रमित होते हैं आदि का विचार समाप्त हुआ ।1 ___ अब प्रकृतिसंक्रम में प्रकृतियों के संक्रम के रूपक का वर्णन करते
प्रकृतिसं क्रम में प्रकृतिसंक्रम का रूपक
संकमइ नन्न पगई पगईओ पगइसकमे दलियं ।
ठिइअणुभागा चेवं ठंति तहट्ठा तयणुरूवं ॥३३॥ शब्दार्थ-संकमइ-संक्रमित करता है, नन्न पगई-अन्य प्रकृति रूप नहीं, पगईओ-प्रकृति में से, पगइसकमे-प्रकृतिसंक्रम में, दलियं—दलिक को, ठिइअणुभागा-स्थिति और अनुभाग, चेवं—इसी प्रकार, ठंति-स्थित रहते हैं, तहट्ठा-उसी रूप को, तयणुरूवं-तद्नुरूप (पतद्ग्रह प्रकृतिरूप) ___ गाथार्थ---प्रकृतिसंक्रम में (संक्रम्यमाण प्रकृति में से) दलिक खींचकर अन्य प्रकृति रूप संक्रमित नहीं करता है, स्थिति और अनुभाग में भी इसी प्रकार (का प्रश्न है)। तो इसका उत्तर है कि संक्रम्यमाण प्रकृति के दलिक पतद्ग्रहप्रकृति के रूप को प्राप्त कर पतद्ग्रहप्रकृति रूप हो जाते हैं।
विशेषार्थ-गाथा में प्रकृतियों के संक्रम के रूपक को प्रश्नोत्तर शैली से स्पष्ट किया है।
१. सुगम बोध के लिये नामकर्म के पतद्ग्रहस्थानों में सक्रमस्थानों आदि का
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