Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३२
७६ पढमचउक्क आइल्लवज्जियं दो अणिच्च आइल्ला ।
संकहिं अट्ठवीसे सामी जहसंभवं नेया ॥३२॥ शब्दार्थ-पढमचउक्क-प्रथमचतुष्क, आइल्लवज्जियं-आदि वर्जित, दो-दो, अणिच्च आइल्ला-अनित्यसंज्ञा वाले आदि के, संकहि-संक्रमित होते हैं, अट्ठवीसे-अट्ठाईस में, सामी--स्वामी, जहसंभवं यथासंभव, नेया--जानना चाहिये।
गाथार्थ-आदि वजित प्रथमसत्ताचतुष्क में के तीन सत्तास्थान और अनित्यसंज्ञा वाले आदि के दो सत्तास्थान अट्ठाईस में संक्रमित होते हैं। स्वामी यथासंभव जानना चाहिये। विशेषार्थ-प्रथमसत्ताचतुष्क में से आदि का एक सौ तीन प्रकृति का समूह रूप----सत्तास्थान छोड़कर शेष तीन सत्तास्थान और अनित्य संज्ञा वाले आदि के तेरानवै और चौरासी प्रकृतिक ये दो, कुल पांच सत्तास्थान अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अट्ठाईस के पतद्ग्रहस्थान में एक सौ दो, छियानवै, पंचानवै, तेरानवै और चौरासी प्रकृतिक ये पांच संक्रमस्थान संक्रमित होते हैं । जिनका अनुक्रम से वर्णन करते हैं
नरकद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, हुडकसंस्थान, पराघात, उच्छ्वास, अप्रशस्तविहायोगति त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दु:स्वर, अनादेय, अयश:कीति, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, तैजस, कार्मण और निर्माण, इन नरकप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर एक सौ दो की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि तिर्यंच अथवा मनुष्य के अट्ठाईस में एक सौ दो प्रकृतियां संक्रमित होती हैं । अथवा__ तैजस, कार्मण, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, देवद्विक, वैक्रियद्विक, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशःकीर्ति
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