Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करण त्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३०
-तेईस, पच्चीस और छब्बीस में, संकमइ-संक्रमित होते हैं, पडिग्गहेसुपतद्ग्रह में, तिसु--तीन में ।
गाथार्थ-तीर्थंकरनामकर्म वाले सत्तास्थानों की छोड़कर शेष प्रथमसत्ताचतुष्क और अध्र वसत्तात्रिक इस प्रकार पांच संक्रमस्थान तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृति रूप तीन पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होते हैं।
विशेषार्थ—प्रथमसत्तास्थानचतुष्क (१०३, १०२, ६६ और ६५) में से तीर्थंकरनामकर्म की जिनमें सत्ता है ऐसे १०३ और ६६ प्रकृतिक इन दो सत्तास्थानों को छोड़कर और उनमें अध्र वसत्ता वाले ६३, ८४ और ८२ प्रकृतिक इन तीन सत्तास्थानों को मिलाने पर कुल १०२, ६५, ६३, ८४ और ८२ प्रकृतिक ये पांच स्थान बंधने वाले तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक तीन पतद्ग्रहस्थान में संकमित होते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि तेईस आदि तीन पतद्ग्रहस्थानों में एक सौ दो, पंचानवै, तेरानवै, चौरासी और वयासी प्रकृतिक ये पांच-पांच संक्रमस्थान संक्रमित होते हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तैजस, कार्मण, औदारिकशरीर, हुडकसंस्थान, एकेन्द्रियजाति, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, बादर-सूक्ष्म इन दोनों में से एक, स्थावर, अपर्याप्त, प्रत्येक-साधारण में से एक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्ति रूप अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों का बंध होने पर और एक सौ दो आदि उपयुक्त पांच प्रकृतिस्थानों की सत्ता वाले एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्दिय और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अनुक्रम से उन तेईस प्रकृतियों में १०२, ६५, ६३, ८४ और ८२ प्रकृति रूप पांच मंक्रमस्थानों को संक्रमित करते हैं।
यहाँ मनुष्य को ग्रहण नहीं करने का कारण यह है कि उसे सभी सत्तास्थान नहीं होते हैं । मनुष्यद्विक रहित वयासी प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है, उसके सिवाय शेष चार सत्तास्थान होते हैं। वे चार सत्तास्थान तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक इन तीन पतग्रह
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