Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
की सभी प्रकृतियों का जो समूह वह एक सौ तीन प्रकृतिक, तीर्थकरनाम की सत्तारहित एक सौ दो प्रकृतिक तथा पूर्वोक्त एक सौ तीन की सत्तो जब आहारकसप्तक रहित हो तब छियानवै प्रकृतिक और पूर्वोक्त एक सौ दो की सत्ता आहारकसप्तक रहित हो तब पंचानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है।
उपर्युक्त प्रथमसत्ताचतुष्क में से क्षपकश्रेणि के नौवें गुणस्थान में तेरह प्रकृतियों का क्षय हो तब अनुक्रम से नव्वै ,नवासी, तेरासी और वयासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं। इनकी 'द्वितीयसत्ताचतुष्क' यह संज्ञा है। ___ पंचानवै में से देवद्विक की उद्वलना होने पर तेरानवै, उनमें से वैक्रियसप्तक और नरकद्विक की उद्वलना हो तब चौरासी और मनुष्य द्विक की उद्वलना हो तब वयासी प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं । इन तोन की 'अध्र व' यह संज्ञा है । यद्यपि वयासी प्रकृतिक सत्तास्थान द्वितीयसत्ताचतुष्क में आता है तथा चौरासी की सत्ता वाला मनुष्यद्विक की उबलना करे तब भी होता है, परन्तु संख्या तुल्य होने से उसे एक ही गिना है। एक सत्तास्थान दो प्रकार से होता है, किन्तु सत्तास्थान की संख्या का भेद नहीं होता है । इस प्रकार दस सत्तास्थान हुए। ___इनमें से द्वितीयसत्ताचतुष्क में के नव्व और तेरासी प्रकृति रूप दो सत्तास्थान संक्रम में घटित नहीं होते हैं। जिसका कारण संक्रमस्थान का विचार करने के प्रसंग में स्पष्ट किया जायेगा। शेष सत्तास्थान संक्रम में होते हैं । इसलिये अभी कहे गये दस सत्तास्थानों में से आठ संक्रमस्थान संभव हैं ।
नौ और आठ प्रकृति के समूह रूप दो सत्तास्थान और भी हैं । परन्तु वे अयोगि-अवस्था के चरम समय में होने से संक्रम के विषयभूत नहीं होते हैं। क्योंकि जब पतद्ग्रह हो तब संक्रम होता है और बध्यमान प्रकृति पतद्ग्रह होती है । लेकिन चौदहवें गुणस्थान में कोई भी प्रकृति बंधती नहीं है । जिससे पतद्ग्रह न होने से किसी भी प्रकृति का संक्रम नहीं होता है।
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