Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
गाथार्थ-उन्नीस, पन्द्रह, ग्यारह आदि तीन-तीन पतद्ग्रह अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और सर्वविरत गुणस्थानों में तथा अनुक्रम से सात आदि छह एवं पांच आदि पांच पतद्ग्रहस्थान दोनों श्रेणियों में होते हैं।
विशेषार्थ-अविरतसम्यग्दृष्टि के उन्नीस, अठारह और सत्रह ये तीन पतद्ग्रहस्थान, देशविरत के पन्द्रह, चौदह और तेरह ये तीन पतद्ग्रहस्थान और सर्वविरत-प्रमत्त अप्रमत्त संयत के ग्यारह, दस और नौ प्रकृतिक ये तीन पतग्रहस्थान होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___अविरतसम्यग्दृष्टि के बंधती सत्रह प्रकृतियां तथा सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय ये उन्नीस प्रकृतियां पतद्ग्रह रूप हाती हैं। उसी के क्षायिक सम्यक्त्व उपजित करते मिथ्यात्व का क्षय होने के बाद अठारह तथा मिश्रमोहनीय का क्षय होने के बाद सत्रह प्रकृतियां पतद्ग्रह में होती हैं।
देशविरत के अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क का बंध नहीं होने से उपर्युक्त उन्नीस प्रकृतियों में से उनको कम करने पर शेष पन्द्रह प्रकृतियां प्रारम्भ में पतद्ग्रह रूप होती हैं। उनमें से पूर्वोक्त क्रम से मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय का क्षय होने पर चौदह और तेरह प्रकृतियां पतद्ग्रह में होती हैं।
सर्वविरत के प्रत्याख्यानावरणचतुष्क का बंध नहीं होता है। इसलिये उनके सिवाय शेष ग्यारह प्रकृतियां प्रारम्भ में पतद्ग्रह में होती हैं। उनमें से क्षायिक सम्यक्त्व उपार्जन करते हुए अनुक्रम से मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय का क्षय होने के बाद दस और नौ प्रकृतियां अनुक्रम से पतद्ग्रह में होती हैं।
सात, छह, पांच, चार, तीन और दो प्रकृति रूप ये छह पतद्ग्रहस्थान औपशमिक सम्यग्दृष्टि के उपशमणि में होते हैं तथा पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति रूप पतद्ग्रहस्थान क्षायिक सम्य
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