Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
पर ग्यारह और संज्वलन क्रोध के उपशमित होने पर दस प्रकृतियां पांच प्रकृतियों में संक्रमित होती हैं।
पतद्ग्रह में से मान के कम होने पर चार प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में दस प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण मान के उपशांत हो जाने पर आठ और संज्वलन मान के उपशमित होने पर सात प्रकृतियां चार प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं।
संज्वलन माया पतद्ग्रह में से कम होने पर तीन में सात प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण माया के उपशांत हो जाने पर पांच और संज्वलन माया के उपशमित होने पर चार प्रकृतियां तीन प्रकृति रूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं।
जब तक संज्वलन लोभ पतद्ग्रह हो तब तक अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरण लोभ उसमें संक्रान्त होता है और संज्वलन लोभ के पतद्ग्रह न रहने पर मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय ये दो प्रकृतियां सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय इन दो में संक्रमित होती हैं।
इस प्रकार से श्रेण्यापेक्षा पतद्ग्रह स्थानों में संक्रमस्थानों का कथद जानना चाहिये। अब मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र गुणस्थान के पतद्ग्रहस्थान सुगम होने से उनको नहीं कहकर शेष गुणस्थानों के पतद्ग्रहस्थानों का कथन करते हैं। अविरत आदि गुणस्थानों के पतद्ग्रहस्थान
गुणवीसपन्न रेवकारसाइ ति ति सम्मदेसविरयाणं ।
सत्त पणाइ छ पंच उ पडिग्गहगा उभयसेढीसु ॥ २६ ॥ शब्दार्थ-गुणवीसपन्नरेक्कारसाइ-उन्नीस, पन्द्रह, ग्यारह आदि, ति ति तीन-तीन, सम्मदेस विरयाणं-अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, सर्वविरत, सत्त पणाइ-सात आदि और पांच आदि, छ पंच-छह, पांच, उ-और पडिग्गहगा-पतद्ग्रह, उभयसेढीसु--दोनों श्रेणियों में ।
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