Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७ जाये तो अनन्तानुबंधि का मिथ्यात्व में जो संक्रम होता है, वह अल्प होने से उसकी विवक्षा न की हो अथवा मतान्तर हो, ऐसा संभव है। ___ अब आयुकर्म आदि विषयक अपवादों का कथन करते हैं—कोई भी जीव आयु की चार उत्तर प्रकृतियों में से किसी भी आयु का परस्पर संक्रम नहीं करता है। यानि सत्तागत कोई भी आयु बध्यमान किसी आयुरूप नहीं होती है—'संकामंति न आउं'।
इसी प्रकार जिस-जिस चारित्रमोहनीय का सर्वथा उपशम होता है, उसका किसी भी अन्य प्रकृति में संक्रम नहीं होता है । मात्र उपशमित दर्शनमोहनीय का संक्रम होता है, यानि मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय सम्यक्त्वमोहनीय रूप हो सकती है तथा ज्ञानावरणादि मूल कर्म प्रकृतियों का परस्पर संक्रम नहीं होता है-'तहय मूलपगईओ' । जैसे कि ज्ञानावरण रूप मूल प्रकृति दर्शनावरण रूप में और दर्शनावरण ज्ञानावरण आदि रूप अन्य मूल प्रकृति में संक्रमित नहीं होती है। इसी प्रकार सभी मूल कर्म प्रकृतियों के लिये जानना चाहिये।
इन अपवादों के सिवाय संक्रम का पूर्वोक्त सामान्य लक्षण समीचीन है, ऐसा समझना चाहिये।
इस प्रकार से संक्रम विषयक अपवादों का विचार करने के पश्चात् संक्रम और पतद्ग्रह के भेद कहते हैं-प्रकृति और स्थान के भेद से संक्रम और पतद्ग्रह के दो-दो प्रकार होते हैं
१. प्रकृतिसंक्रम, २. प्रकृतिस्थानसंक्रम और १. प्रकृतिपतद्ग्रह, २. प्रकृतिस्थानपतद्ग्रह-'पगइठाणविभेया संकमणपडिग्गहा दुविहा।'
प्रकृतिसंक्रम आदि के लक्षण इस प्रकार हैं
जब एक प्रकृति एक में संक्रमित हो, जैसे कि साता असाता में अथवा असाता साता में तब जो प्रकृति संक्रांत होती है, उस एक प्रकृति का संक्रम होने से प्रकृतिसंक्रम और एक में संक्रम होता है इसलिये वह प्रकृति पतद्ग्रह है और जब दो, तीन आदि अनेक प्रकृतियां अनेक
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