Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११,१२
२६
से, उसके बिना शेष छब्बीस प्रकृतियां संक्रमित होती हैं तथा मिश्रमोहनीय की उद्वलना होने के बाद छब्बीस प्रकृति की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि के चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियां संक्रमित होती हैं, अथवा छब्बीस की सत्ता वाले अनादि मिथ्यादृष्टि के भी पच्चीस प्रकृतियां संक्रान्त होती हैं। मिथ्यात्वमोहनीय का संक्रम नहीं होता है । कारण यह है कि वह चारित्रमोहनीय में संक्रमित नहीं होती है। क्योंकि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के पर पर संकम का अभाव है।
अथवा अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता वाले औपशमिक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् आवलिका बीतने के बाद सम्यक्त्वमोहनीय में मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय का संक्रम होता है, जिससे सम्यक्त्वमोहनीय पतद्ग्रह है, अतएव उसको अलग करने पर शेष सत्ताईस प्रेकृतियां संक्रम में होती हैं तथा वही अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता वाला और आवलिका के अन्तर्वर्ती अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्त हुए जिसे आवलिका बीती नहीं ऐसे औपशमिक सम्यग्दृष्टि के मिश्रमोहनीय सम्यक्त्वमोहनीय में संक्रमित नहीं होती है। इसका कारण यह है कि सम्यक्त्व के अनुरूप विशुद्धि की सामर्थ्य द्वारा मिथ्यात्व के पुद्गल ही मिश्रमोहनीय रूप परिणाम को प्राप्त होते हैं यानि मिश्रमोहनीय रूप में परिणमित हुए हैं। क्योंकि अन्य प्रकृति रूप में परिणमन करना ही संक्रम कहलाता है। जिस समय जिसका अन्य प्रकृति रूप में परिणमन होता है, उस समय से लेकर एक आवलिका पर्यन्त वे दलिक सभी करणों के अयोग्य होते हैं, अर्थात् उनमें किसी भी करण की प्रवृत्ति नहीं होती है।
यहाँ सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद आवलिका के अन्दर मिश्रमोहनीय की संक्रमावलिका पूर्ण नहीं होने से उसके दलिक सम्यक्त्वमोहनीय में संक्रमित नहीं होते हैं, मात्र मिथ्यात्वमोहनीय के ही संक्रमित होते हैं । सम्यक्त्वमोहनीय का तो सम्यक्त्वी के क्रम होता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org