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संक्रन आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
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शब्दार्थ - अट्ठाराइचउवकं – अठारह आदि चार, पंचे--पांच में, अट्ठार बार एक्कारा - अठारह, बारह, ग्यारह, चउसु - चार में, इगारसनवअड – ग्यारह, नौ, आठ, तिगे—तीन में, दुगे – दो में, अट्ठछप्पंच-- आठ, छह, पांच ।
गाथार्थ - अठारह आदि चार पांच के पतद्ग्रह में, अठारह, बारह और ग्यारह चार में, ग्यारह, नौ और आठ तीन में, आठ, छह और पांच प्रकृतियां दो प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं ।
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विशेषार्थ - क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उपशमश्रेणि में अठारह, उन्नीस बीस और इक्कीस प्रकृतिक ये चार संक्रमस्थान पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क रूप पांच प्रकृतिक पतग्रहस्थान में संक्रमित होते हैं । उनमें अन्तरकरण करने के पहले इक्कीस प्रकृतियां पांच प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं और अन्तरकरण करने के बाद लाभ के सिवाय बीस प्रकृतियां पांच में संक्रांत होती हैं । नपुंसकवेद का उपशम होने के बाद उन्नीस प्रकृतियां और स्त्रीवेद के उपशांत होने के बाद अठारह प्रकृतियां पांच प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं ।
में
अठारह, वारह और ग्यारह प्रकृतियां चार प्रकृतिक पतद्ग्रह संक्रांत होती हैं । पतद्ग्रह में से पुरुषवेद के जाने के बाद अठारह प्रकृतियां चार में संक्रमित होती हैं । हास्यषट्क के उपशांत होने के पश्चात् बारह प्रकृतियां और पुरुषवेद का उपशम होने के बाद ग्यारह प्रकृतियां चार प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं- 'अट्ठार बार एक्कारा चउसु ।
'इगारसनवअड तिगे' अर्थात् ग्यारह, नौ और आठ प्रकृतियां तीन प्रकृतिक पतदुग्रहस्थान में संक्रांत होती हैं । वे इस प्रकार - संज्वलन क्रोध पतद्ग्रह हो वहाँ तक संज्वलनचतुष्क में ग्यारह प्रकृतियां संक्रमित होती हैं और क्रोध पतद्ग्रह में से जाने के बाद ग्यारह प्रकृतियां
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