Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७ प्रकृतियां संक्रमित होती हैं। वे इस प्रकार____ अनन्तानुबंधि की विसंयोजना कर पहले गुणस्थान को प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि के एक आवलिका पर्यन्त तेईस प्रकृतियां चारित्रमोहनीय की इक्कीस और मिथ्यात्व इस प्रकार बाईस प्रकृति रूप पतद्ग्रहस्थान में संक्रमित होती हैं तथा अनन्तानुबंधि के विसंयोजक चौबीस की सत्ता वाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि अविरत, देशविरत और सर्वविरत जीवों के अनुक्रम से उन्नीस, पन्द्रह और ग्यारह प्रकृतिक पतद्ग्रह में तेईस प्रकृतियां संक्रांत होती हैं और नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में अन्तरकरण प्रारंभ करने के पूर्व सात के पतद्ग्रहस्थान में तेईस प्रकृतियां संक्रमित होती हैं । तथा
अट्ठारस चोद्ददससत्तगेसु बावीस खीणमिच्छाणं ।
सत्तरसतेरनवसत्तगेसु इगवीसं संकमइ ॥२४॥ शब्दार्थ--अट्ठारस चोद्ददससत्तगेसु-अठारह, चौदह, दस, सात में, बावीस-बाईस, खीणमिच्छाणं-क्षीणमिथ्यादृष्टि के, सत्तरसतेरनवसत्तगेसुसत्रह, तेरह, नौ, सात में, इगवीसं-इक्कीस प्रकृतियां, संकमइ-संक्रमित होती हैं। __ गाथार्थ-क्षीणमिथ्यादृष्टि ऐसे अविरतादि के अठारह, चौदह
और दस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में और उपशमश्रेणि में उपशम सम्यक्त्वी के सात प्रकृतिरूप पतद्ग्रहस्थान में बाईस प्रकृतियां संक्रमित होती हैं तथा उसी क्षीणसप्तक अविरतादि के सत्रह, तेरह और नौ के पतद्ग्रह में और उपशमश्रेणि में उपशम सम्यक्त्वी के सात के पतद्ग्रह में इक्कीस प्रकृतियां संक्रमित होती हैं।
विशेषार्थ क्षायिक सम्यक्त्व उपार्जन करते हुए जिन्होंने मिथ्यात्वमोह का क्षय किया है ऐसे अविरत, देशविरत और संयत जीवों के अठारह, चौदह और दस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में बाईस प्रकृतियां संक्रान्त होती हैं। उसमें जिसने मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय
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