Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४
इस प्रकार दर्शनावरण और नाम कर्म के सिवाय शेष कर्मों के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों के सादि आदि भंगों की प्ररूपणा जानना चाहिये | अब दर्शनावरण कर्म के सादि आदि भंगों का कथन करते हैं । दर्शनावरणकर्म के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों के साद्यादि भंग
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दंसणवरणे नवगो संकमणपडिग्गहा भवे एवं । साई अधुवा सेसा संकमणपडिग्गहठाणा ॥ १४ ॥
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शब्दार्थ - दंसणवरणे --- दर्शनावरणकर्म में, नवगो - नौ प्रकृति रूप, संकमणपडिग्गहा - संक्रम और पतद्ग्रह स्थान, भवे - होता है, एवं - इसी प्रकार, साई अधुवा -- सादि, अध्र ुव, सेसा - शेष, संकमणपडिग्गहठाणा - संक्रम और पतद्ग्रह स्थान ।
गाथार्थ - दर्शनावरणकर्म में नौ प्रकृति रूप संक्रम और पतद्ग्रहस्थान इसी प्रकार सादि आदि चार प्रकार का है । शेष संक्रम और पतद्ग्रह स्थान सादि और अध्रुव हैं ।
विशेषार्थ - दर्शनावरणकर्म की नौ प्रकृतियों का बंधक मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जीव नौ के पतद्ग्रह में नौ प्रकृतियों को संक्रमित करता है । इन नौ का पतद्ग्रह सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह चार प्रकार का है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि मिश्रदृष्टि आदि गुणस्थान में छह का बंध होने से नौ का पतद्ग्रह नहीं है । वहाँ से पतन होने पर होता है, इसलिये सादि है, उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनके अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव जानना चाहिये ।
इसी प्रकार नौ प्रकृति रूप संक्रमस्थान सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह चार प्रकार का है । जो इस प्रकार - सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान से आगे उपशांतमोहगुणस्थान में संक्रम नहीं होता है, वहाँ से गिरने पर होता है, इसलिये सादि, उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनके अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्रुव होता है ।
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