Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७ दोनों प्रकृतियां परावर्तमान रूप हैं। जिससे परस्पर संक्रम और पतद्ग्रह स्थान होती रहती हैं। इसलिये वे दोनों स्थान वेदनीय की तरह सादि, अध्र व हैं।
अब मोहनीयकर्म के पतद्ग्रह और संक्रम स्थानों के साद्यादि भंगों की प्ररूपणा करते हैं। मोहनीयकर्म के पतद्ग्रह-संक्रम-स्थानों के साद्यादि भंग
मोहनीयकर्म के पतद्ग्रह और संक्रम स्थानों की संख्या का निरूपण पहले किया जा चुका है कि संक्रमस्थान तेईस और पतद्ग्रहस्थान अठारह हैं। उनमें से पच्चीस प्रकृति रूप संक्रमस्थान सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व इस तरह चार प्रकार है। वह इस प्रकार-अट्ठाईस की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि जब सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की उद्वलना करे तब उसके पच्चीस का संक्रमस्थान होता है, इसलिये सादि है, अनादि मिथ्यादृष्टि के अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्रुव होता है और शेष रहे सभी संक्रमस्थान अमुक काल पर्यन्त ही प्रवर्तमान होने से सादि-सांत हैं।
पतद्ग्रहस्थानों में से इक्कीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है । वह इस प्रकार-मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की उद्वलना होने के बाद छब्बीस प्रकृति की सत्ता वाले के इक्कीस प्रकृति रूप पतद्ग्रहस्थान की शुरुआत होती है, इसलिये सादि है । छब्बीस प्रकृति की सत्ता वाले अनादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्रुव है । शेष समस्त पतद्ग्रहस्थान नियतकाल पर्यन्त प्रवर्तित होने से सादि, अध्र व-सांत हैं। ___ आयुकर्म में परस्पर संक्रम न होने से संक्रमत्व पतद्ग्रहत्व संबन्धी उनके सादि आदि भंग भी घटित नहीं होते हैं । १. वेदनीय और गोत्र कर्म के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों विषयक विशेष स्पष्टीकरण पूर्व में किया जा चुका है ।
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