Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७
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इस प्रकार से इन सबका विचार करके जो संक्रमस्थान जहाँ और जब घटित हो, वह वहाँ घटित कर लेना चाहिये । कौनसा संक्रमस्थान कहाँ घटित होता है, इसका विस्तार से निर्देश पूर्व में किया जा चुका है ।
अब जो-जो संक्रमस्थान जिस-जिस गुणस्थान में संभव हैं, उनका प्रतिपादन करते हैं ।
गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के संक्रमस्थान
आमीसं पणवीसो इगवीसो मोसगाउ जा पुव्वो । मिच्छखवगे दुवोसो मिच्छेय तिसत्तछव्वीसो ॥१७॥ शब्दार्थ- आमीसं मिश्र गुणस्थान पर्यन्त, पणुवीसो पच्चीस प्रकृति रूप, इगवीसो – इक्कीस प्रकृति रूप, मीसागाउ - मिश्र गुणस्थान से, जा पुग्यो- अपूर्व करणगुणस्थान पर्यन्त मिच्छ्खवगे – मिथ्यात्वं के क्षपक के, दुवीसो - वाईस प्रकृति रूप, मिच्छे – मिथ्यात्व गुणस्थान में, य - अनुक्त समुच्चायक शब्द और, तिसत्तछवोसो - तेईस, छब्वीस, सत्ताईस प्रकृति रूप । गाथार्थ - मिश्र गुणस्थान पर्यन्त पच्चीस प्रकृतिरूप, मिश्रगुणस्थान से अपूर्वकरणगुणस्थान पर्यन्त इक्कीस प्रकृतिरूप, मिथ्यात्व के क्षपक के बाईस प्रकृतिरूप, मिथ्यात्वगुणस्थान में तेइस, छब्वीस और सत्ताईस प्रकृतिरूप संक्रमस्थान होते हैं ।
विशेषार्थ गाथा में गुणस्थानों की अपेक्षा मोहनीयकर्म के संक्रमस्थानों के स्वामियों का निर्देश किया है
पच्चीस प्रकृतिरूप संक्रमस्थान मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर मिश्र गुणस्थान पर्यन्त होता है, अन्यत्र नहीं होता है तथा मिश्रगुणस्थान से लेकर अपूर्वकरणगुणस्थान पर्यन्त इक्कीस प्रकृति रूप संक्रमस्थान होता है, शेष गुणस्थानों में नहीं होता है ।
गाथा ग्यारहवीं के विवेचन में ।
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