Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५
भि का करने के बाद और इतर
गाथार्थ-क्षायिक अथवा उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों के श्रेणि (उपशमश्रोणि) में (अन्तरकरण करें तब) और इतर क्षपकश्रेणि में आठ कषायों का क्षय करने के बाद (अन्तरकरण करें तब) चरम--संज्वलनलोभ का संक्रम नहीं होता है। क्योंकि पांच प्रकृतियों का संक्रम क्रम से होता है।
विशेषार्थ-क्षायिक सम्यग्दृष्टि अथवा उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों के उपशमश्रेणि में जब अन्तरकरण करें तब तथा इतर-क्षपकश्रोणि में आठ कषायों का क्षय करने के बाद अन्तरकरण करें तब संज्वलनलोभ का संक्रम नहीं होता है।
इसका कारण यह है कि उपशमश्रोणि में अथवा क्षपकणि में अन्तरकरण करने के बाद पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधादि कषायचतुष्क इन पांच प्रकृतियों का क्रमपूर्वक यानि पहले जिसका बंधविच्छेद होता है, उसका उसके बाद बंधविच्छेद होने वाली प्रकृति में संक्रम होता है, उत्क्रम से नहीं होता है। अर्थात् जिसका बंधविच्छेद बाद में होता है, उसका पहले बंधविच्छेद होने वाली प्रकृति में संक्रम नहीं होता है।
जैसे कि पुरुषवेद का संज्वलन क्रोधादि में संक्रम होता है, परन्तु संज्वलन क्रोधादि का पुरुषवेद में संक्रम नहीं होता है। इसी प्रकार संज्वलन क्रोध का संज्वलन मान में संक्रमण किया जाता है, परन्तु पुरुषवेद में संक्रम नहीं होता है । संज्वलन मान को संज्वलन मायादि में संक्रमित किया जाता है परन्तु संज्वलन क्रोधादि में संक्रमित नहीं किया जाता है और संज्वलन माया का संज्वलन लोभ में संक्रम होता है परन्तु संज्वलन मानादि में नहीं। इसी बात को कर्मप्रकृति संक्रमकरण गाथा ४ में भी इसी प्रकार कहा है-'अन्तरकरण करने पर चारित्रमोहनीय की पांच प्रकृतियों का क्रमपूर्वक संक्रमण होता है।'' अतएव उक्त न्याय से अन्तरकरण होने के बाद संज्वलनलोभ १ 'अंतरकरणंमि कए चरित्तमोहेणुपुदिव संकमणं ।'
कर्मप्रकृति संक्रमकरण गा. ४
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