Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
पंचसंग्रह : ७ पांचों प्रकृतियां एक साथ पतद्ग्रहरूप और सत्ता में से पांचों के एक साथ व्युच्छिन्न होने से संक्रम करने वाली भी पांचों घटित होती हैं । वह इस प्रकार_ज्ञानावरण की पांचों प्रकृतियों का परस्पर संक्रम होता है। मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण में संक्रमित होता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण भी मतिज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण में संक्रमित होता है । इसी तरह अवधिज्ञानावरणादि के लिये भी और अंतरायकर्म की प्रकृतियों के लिये भी समझ लेना चाहिये कि उनका भी परस्पर एक दूसरे में संक्रमण होता है । क्योंकि दसवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त वे सभी प्रकृतियां निरन्तर बंधती रहती हैं और बारहवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त वे निरंतर सत्ता में रहती हैं । ध्र वबंधिनी होने से ये प्रत्येक प्रकृतियां एक साथ पतद्ग्रह रूप से घटित होती हैं तथा ध्र वसत्ता होने से पतद्ग्रह प्रकृति होने तक एक साथ संक्रमित होने वाली भी होती हैं । इस प्रकार इन दोनों कर्मों का पांच-पांच प्रकृति रूप एक ही पतद्ग्रहस्थान और पांच-पांच प्रकृति रूप एक संक्रमस्थान है।
दर्शनावरणकर्म के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । अतएव शेष कर्मों के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों की संख्या बतलाते हैं। वेदनीय और गोत्रकर्म के संक्रम और पतद्ग्रह स्थान
वेदनीय और गोत्र कर्म इन दोनों में से प्रत्येक कर्म के दो-दो सत्तास्थान हैं। वे इस प्रकार---दो प्रकृति रूप और एक प्रकृति रूप । यद्यपि वेदनीय और गोत्र कर्म का दो प्रकृति रूप सत्तास्थान है, लेकिन दो प्रकृतियों का एक साथ संक्रम नहीं होने से एक-एक प्रकृति रूप एक-एक संक्रमरथान ही होता है। क्योंकि परावर्तमान होने से गोत्र और वेदनीय की दो-दो प्रकृतियों में से मात्र एक-एक का ही बंध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org