Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
य संकमे नत्थि ।
पन्नरससोलसत्तरअडचउवीसा अट्ठदुवालससोलसवीसा य पडिग्गहे नत्थि ॥ १२ ॥
शब्दार्थ-संतद्वाणसमाई - सत्तास्थानों के समान, संकमठाणा इंसंक्रमस्थान, दोण्णि— दो, बीयस्स —— दूसरे दर्शनावरण के, बंधसमाबंधस्थान के समान, पडिग्गहगा -- पतद्ग्रहस्थान, अट्ठहिया - आठ अधिक, दोवि― ― दोनों, मोहस्स - मोहनीय कर्म के ।
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पन्नरससोलसत्तरस-पन्द्रह, सोलह, सत्रह, अडचउवोसा- -आठ और चार अधिक बीस, य-और, संकमे— संक्रम में, नत्थि नहीं होते हैं, अट्ठदुवालससोलसवीसा - आठ, बारह, सोलह और बीस, य- अनुक्त अर्थबोधक अव्यय, डिग्ग— पतद्ग्रह में, नत्थि नहीं होते हैं ।
गाथार्थ - सत्तास्थानों के समान प्रत्येक कर्म के संक्रमस्थान हैं, किन्तु दूसरे दर्शनावरणकर्म के दो हैं । बंधस्थानों के समान पतद्ग्रहस्थान हैं, परन्तु मोहनीयकर्म में बंधस्थानों और सत्तास्थानों से आठ-आठ अधिक पतद्ग्रहस्थान और संक्रमस्थान हैं ।
पन्द्रह, सोलह, सत्रह, आठ और चार अधिक बीस इस तरह पांच स्थान संक्रम में तथा आठ, बारह, सोलह और बीस ये चार स्थान पतद्ग्रह में नहीं होते हैं ।
विशेषार्थ- इन दो गाथाओं में ज्ञानावरण आदि आठों मूल कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के संक्रमस्थानों और पतद्ग्रहस्थानों की संख्या का निर्देश किया है । जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
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सत्तास्थान के समान संक्रमस्थान होते हैं - 'संतट्ठाणसमाई संकमठाणाइं' अर्थात् जिस कर्म के जितने सत्तास्थान होते हैं, उस कर्म के उतने संक्रमस्थान भी होते हैं । किन्तु दूसरे दर्शनावरणकर्म में नौ और छह की सत्ता रूप दो ही संक्रमस्थान हैं । सत्तास्थान की तरह तीसरा चार प्रकृतिक सत्ता रूप संक्रमस्थान नहीं है । जिसका आशय इस प्रकार है
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