Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
उच्चगोत्र का संक्रम होता है। ऊपर के गुणस्थानों में मात्र उच्चगोत्र बंधने से नीचगोत्र का ही संक्रम होता है। उक्त समग्र कथन का सुगमता से बोध कराने वाला प्रारूप परिशिष्ट में देखिये। __इस प्रकार से प्रकृतिसंक्रम के स्वामियों को जानना चाहिये । अब पतद्ग्रह की अपेक्षा प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा करते हैं। पतद्ग्रहापेक्षा साद्यादि प्ररूपणा
चउहा पडिग्गहत्तं धुवबंधिणं विहाय मिच्छत्तं ।
मिच्छाधुवबंधिणं साई अधुवा पडिग्गया ॥१०॥ शब्दार्थ-चउहा–चार प्रकार का, पडिग्गहत्तं--पतद्ग्रहत्व, ध्रुवबंधिणं-ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का, विहाय-छोड़कर, मिच्छत्तं-मिथ्यात्व को, मिच्छाधुवबंधिणं-मिथ्यात्व और अध्र वबंधिनी प्रकृतियों का, साईसादि, अधुवा- अध्र व, पडिग्गहया---पतद्ग्रहत्व ।
__ गाथार्थ-मिथ्यात्व को छोड़कर शेष ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का पतद्ग्रहत्व चार प्रकार का है तथा मिथ्यात्व और अध्र वबंधिनी प्रकृतियों का पतद्ग्रहत्व सादि और अध्र व है।
विशेषार्थ-बंध की अपेक्षा प्रकृतियां दो प्रकार की हैं---ध्रुवबंधिनी, अध्र वबंधिनी और बंधप्रकृतियां पतद्ग्रह रूप होती हैं। उनकी यहाँ सादि-अनादि आदि प्ररूपणा की है - ___ 'विहाय मिच्छत्त' अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीय को छोड़कर शेष ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, कषायषोडश, भय, जुगुप्सा, तैजससप्तक, वर्णादिवीशक, निर्माण, अगुरुलघु, उपघात और अंतरायपंचक--'इस तरह सड़सठ ध्र वबंधिनी प्रकृतियों की पतद्ग्रहता सादि, अनादि, ध्र ब, अध्र व इस तरह चार प्रकार की है।
वह इस प्रकार---उपर्युक्त ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का अपना-अपना जब बंधविच्छेद होता है तब वे पतद्ग्रह नहीं रहती हैं। यानि उनमें Jain Education International
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