Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६
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गुणस्थानों में बंध का अभाव होने से प्रकृति पतद्ग्रह रूप नहीं रहती है, जिससे किसी भी प्रकृति का संक्रम नहीं होता है।
मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय के अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशांतमोह गुणस्थान तक के जीव संक्रम के स्वामी हैं। क्षीणमोहादि गुणस्थानों में उनकी सत्ता का अभाव होने से संक्रम नहीं होता है।
मिश्रमोहनीय का मियादृष्टि भी संक्रमक है, किन्तु सासादन और मिश्रदृष्टि जीव तो किसी भी दर्शनमोहनीय का किसी भी प्रकृति में संक्रम नहीं करते हैं । क्यों कि गाथा ३ में कहा है-दूसरे और तीसरे गुणस्थानवी जीव दर्शनत्रिक का संक्रम नहीं करते हैं। मिथ्यादृष्टि तो मिथ्यात्वमोहनीय के पतद्ग्रह होने से स्वभावतः संक्रमित नहीं करता है । क्योंकि गाथा ३ में कहा है--जिस दृष्टि का उदय हो उस दृष्टि को कोई जीव संक्रमित नहीं करता है । इसलिये मिश्र और मिथ्यात्व मोहनीय के संक्रम के स्वामी अविरतसम्यग्दृष्टि आदि कहे हैं।
सम्यक्त्वमोहनीय के संक्रम का स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव है, अन्य कोई नहीं। क्योंकि सम्यक्त्वमोहनीय को मिथ्यात्व में वर्तमान जीव ही संक्रमित करता है, किन्तु सासादन या मिश्र संक्रमित नहीं करता है। क्योंकि दूसरे, तीसरे गुणस्थान में किसी भी दृष्टि का संक्रम नहीं होता है और चतुर्थ आदि गुणस्थानों में विशुद्ध परिणाम हैं, इसलिये सम्यक्त्वमोहनीय के संक्रम का स्वामी अविशुद्ध मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये।
उच्चगोत्र के संक्रम का स्वामी सासादनगुणस्थान तक का जीव है। इसका कारण यह है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनगुणस्थानवर्ती जीव ही नीचगोत्रकर्म बांधते हैं। जहाँ और जब तक नीचगोत्र का बंध हो वहाँ तक और तभी उच्चगोत्र का संक्रम होता है । बध्यमान प्रकृति पतद्ग्रह है और पतद्ग्रहप्रकृति के बिना संक्रम होता नहीं। नीचगोत्र दूसरे गुणस्थान तक ही बंधने वाला होने से वहाँ तक ही
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