Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११,१२ अन्य किसी भी प्रकृति के दलिक संक्रमित नहीं होते हैं, किन्तु जब उन-उन प्रकृतियों का अपने-अपने बंधहेतुओं के मिलने से बंध प्रारंभ होता है, तब वे पुनः पतद्ग्रह रूप होती हैं। इस प्रकार पतद्ग्रहता नष्ट होने के बाद पुनः पतद्ग्रह रूप होने से सादि है। उन प्रकृतियों का बंधविच्छेदस्थान जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनका पतद्ग्रहत्व अनादि है । अभव्य के बंधविच्छेद होता ही नहीं है, इसलिये ध्रुव है और भव्य ऊपर के गुणस्थान में जाकर उन-उन प्रकृतियों का बंधविच्छेद करेगा-पतद्ग्रहत्व का नाश करेगा, उस अपेक्षा अध्र व है। __ मिथ्यात्वमोहनीय और अध्र वबंधिनी प्रकृतियों की पतद्ग्रहता सादि, अध्र व है। वह इस प्रकार-मिथ्यात्वमोहनीय यद्यपि ध्रुवबंधिनी है, परन्तु जिस जीव के सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की सत्ता हो, वही इन दो प्रकृतियों के दलिकों को मिथ्यात्वमोहनीय में संक्रांत करता है, दूसरा कोई संक्रमित नहीं करता है। सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की सत्ता सर्वदा होती नहीं, इसलिये मिथ्यात्वमोहनीय की पतद्ग्रहता सादि, अध्र व है। ___ अध्र वबंधिनी शेष छियासी प्रकृतियों की पतद्ग्रहता अध्र वबंधिनी होने से ही सादि और अध्र व समझना चाहिये। ___ चारों आयु का परस्पर संक्रम नहीं होने से उनमें सादि आदि भंगों का विचार नहीं किया जाता है। उक्त कथन का सुगमता से बोध कराने वाला प्रारूप परिशिष्ट में देखिये। ___ इस प्रकार से एक-एक प्रकृति की संक्रम और पतद्ग्रहत्व की अपेक्षा साद्यादि प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये। अब प्रकृतिस्थान की साद्यादि प्ररूपणा करते हैं। परन्तु उससे पूर्व संक्रम और पतद्ग्रह के विषय में उनके स्थानों की संख्या का निर्देश करने के लिये गाथासूत्र कहते हैं। प्रकृतियों के संक्रम और पतद्ग्रह स्थान
संतट्ठाणसमाई संकमठाणाइं दोष्णि बीयस्य । बंधसमा पडिग्गहगा अहिया दोवि मोहस्स ॥११॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org