Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
कि मिथ्यात्वमोहनीय का संक्रम विशुद्ध सम्यग्दृष्टि के होता है और विशुद्ध सम्यग्दृष्टित्व कादाचित्क-अमुक काल में होता है, अनादि काल से नहीं होता है । इसलिये जब उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त हो तब मिथ्यात्वमोहनीय का संक्रम होता है, जिससे सादि और उसके बाद क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो अथवा गिरकर मिथ्यात्व में जाये तब संक्रम का अन्त होता है, जिससे अध्र व (सांत) है। इस प्रकार मिथ्यात्व का संक्रम सादि, सान्त (अध्र व) भंग वाला है ।
साता-असाता-वेदनीय और उच्च-नीच-गोत्र प्रकृतियों के परावर्तमान होने से ही उनका संक्रम सादि-अध्र व भंग वाला है। वह इस प्रकार-सातावेदनीय के बंध होने पर असातावेदनीय का संक्रम होता है तथा जब असातावेदनीय का बंध होता हो तब साता का संक्रम होता है। इसी प्रकार उच्चगोत्र का जब बंध तब नीचगोत्र का और जब नीचगोत्र का बंध हो तब उच्चगोत्र का संक्रम होता है। वध्यमान प्रकृति पतद्ग्रह है और नहीं बंधने वाली संक्रम्यमाण है। इस प्रकार ये प्रकृतियां परावर्तमान होने से उनका संक्रम सादि और सांत (अध्र व) भंग वाला है। . अध वसत्कर्म प्रकृतियों का बंध की तरह संक्रम भी सादि-सांत समझना चाहिये । क्योंकि उनकी सत्ता ही अध्र व है। सत्ता हो तब संक्रम होता है और सत्ता के न होने पर संक्रम नहीं होता है। सुगमता से बोध करने के लिये प्रारूप परिशिष्ट में देखिये।
इस प्रकार से प्रकृतिसंक्रम संबन्धी सादि-अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये । अब संक्रम्यमाण प्रकृतियों के स्वामित्व का कथन करते हैं। संक्रम्यमाण प्रकृलियों का स्वामित्व
साअणजसदुविहासाय सेस दोदसणाग जइपुव्वा । संकामगंत कमसो सम्मुच्चाणं पढमहुइया ॥९॥
शब्दार्थ-साअणजस-सातावेदनीय, अनन्तानुबंधि, यशःकीर्ति, दुविहकसाय-दो प्रकार की कसाय, सेस-शेष प्रकृतियों, दोदसणाण
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