Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम नहीं होता है और सम्यक्त्व तथा मिश्रमोहनीय की तो उद्वलना हो गई, जिससे अन्य किसी भी प्रकृति के संक्रम का अभाव होने से मिथ्यात्वमोहनीय की पतद्ग्रहता नहीं रहती है—'उव्वलिएसु दोसु पडिग्गहया नत्थि मिच्छस्स ।,
इस प्रकार सामान्य पतद्ग्रहता विषयक अपवाद का कथन करने के बाद अब श्रेणि विषयक अपवाद कहते हैं_ 'दुसुतिसु' इस प्रकार गाथा में ग्रहण किये हुए दो और तीन शब्द के साथ पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क की क्रमपूर्वक योजना करना चाहिये और योजना करने पर यह अर्थ हुआ कि अन्तरकरण करने के बाद समयन्यून दो आवलिका प्रमाण प्रथम स्थिति शेष रहे तब पुरुषवेद की पतद्ग्रहता नहीं रहती है। अर्थात् पुरुषवेद में अन्य किसी भी प्रकृति के दलिक संक्रमित नहीं होते हैं तथा समयन्यून तीन आवलिका प्रमाण प्रथमस्थिति शेष रहे तब संज्वलनचतुष्क—क्रोध, मान, माया
और लोभ पतद्ग्रह रूप नहीं रहते हैं। प्रथमस्थिति उतनी-उतनी शेष रहे तब उनमें अन्य किसी भी प्रकृति के दलिक संक्रमित नहीं होते हैं।
इस प्रकार से पतद्ग्रह संबंधी अपवाद जानना चाहिये । अब क्रमप्राप्त सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं। वह दो प्रकार की है१-मूल प्रकृति विषयक और २-उत्तर प्रकृति विषयक । किन्तु मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होने से उनमें तो सादि-अनादि प्ररूपणा संभव नहीं है । इसलिये उत्तर प्रकृतियों में विचार करते हैं । उत्तर प्रकृतियों को सादि-अनादि प्ररूपणा ।
धुवसंतीणं चउहेह संकमो मिच्छणीयवेयणीए। .
साईअधुवो बंधोव्व होइ तह अधुवसंतीणं ॥८॥ शब्दार्थ-धुवसंतीणं-ध्रुव सत्तावाली प्रकृतियों का, चउहेह--चार प्रकार का, संकमो-संक्रम, मिच्छणीयवेयणीए-मिथ्यात्व, नीचगोत्र और
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