Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
श्रुतज्ञानावरण में, मतिज्ञानावरण अवधिज्ञानावरण में तब उसे प्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिपतद्ग्रह कहा जा सकता है। क्योंकि यहाँ विवक्षा प्रमाण है । इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये ।
१.२.
इन प्रकृतिसंक्रम, प्रकृतिस्थानपतग्रह आदि की इस प्रकार चतुभंगी हो सकती है—१. संक्रम्यमाण प्रकृति एक पतग्रहप्रकृति भी एक, २. संक्रम्यमाण प्रकृति अनेक पतद्ग्रहप्रकृति एक, ३. संक्रम्यमाण प्रकृति एक, पतद्ग्रह अनेक और ४. संक्रम्यमाण प्रकृति अनेक, पतद्ग्रहप्रकृति भी अनेक । यथा -- बध्यमान सातावेदनीय में जब असातावेदनीय संक्रांत होती है तब संक्रमित होने वाली और पतद्ग्रह एक - एक प्रकृति होने से पहला भंग घटित होता है । आठवें गुणस्थान के सातवें भाग से दसवें गुणस्थान तक बंधने वाली यशःकीति में नामकर्म की बहुत सी प्रकृतियां संक्रमित होने से दूसरा भंग घटित होता है | प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय मिथ्यात्व के तीन पुज किये जाते हैं, वहाँ से लेकर एक आवलिका काल पर्यन्त मिश्रमोहनीय का संक्रम नहीं होता है, इसलिये उस समय मात्र मिथ्यात्वमोहनीय का मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय इस प्रकार दो में संक्रम होने से तीसरा भंग और बंधती हुई नामकर्म की तेईस आदि प्रकृतियों में संक्रांत होने वाली नामकर्म की बहुत-सी प्रकृतियां होने से वहाँ चतुर्थ भंग घटित हो सकता है । इसी प्रकार अन्यत्र भी भंगों को घटित होने की योजना कर लेनी चाहिये ।
इस प्रकार से संक्रम विषयक अपवाद आदि का कथन करने पश्चात् इसमें और भी जो विशेष है, उसको बतलाते हैंखयउवसमदिट्ठीणं सेढीए न चरिमलोभसंकमणं । खवियट्ठगस्स इयराइ जं कमा होंति पंचन्हं ॥ ५ ॥
शब्दार्थ -- खयउवस मदिट्ठीणं- क्षायिक अथवा उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों के, सेढीए-श्रेणि में, न- -नहीं, चरिमलोभसंकमणं - चरम (संज्वलन ) लोभ का संक्रमण, खविट्ठगस्य — क्षपकश्रेणि वाले के आठ कषायों का, इयराइइतर, जं- क्योंकि, कमा- — क्रम से होंति — होता है, पंच-पांच का ।
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