Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३,४ व्युत्पत्तिमूलक अर्थ इस प्रकार है-पतद् अर्थात् संक्रमित होने वाले दलिकों का ग्रह-आधार पतद्ग्रह है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सत्ता में विद्यमान दलिक बध्यमान जिस प्रकृति रूप होते हैं, वह बध्यमान प्रकृति पतद्ग्रह कहलाती है।
संक्रांत हुआ वह दलिक जिस समय संक्रमित हुआ उस समय से लेकर एक आवलिका काल तक करणासाध्य-उद्वर्तना, अपवर्तना आदि किसी भी करण के अयोग्य होता है, यानि उस दलिक में किसी भी करण की प्रवृत्ति नहीं होती है। एक आवलिका काल तदवस्थ ही रहता है। उसके पश्चात् किसी भी करण के योग्य होता है। इसी प्रकार जिस समय बंधा उस बद्धदलिक में भी बद्धसमय से लेकर एक आवलिका काल पर्यन्त किसी भी करण की प्रवृत्ति नहीं होती है। संक्रांत दलिक में भी संक्रम का सामान्य लक्षण घटित होता है, इसलिये संक्रम समय से लेकर एक आवलिका काल वह दलिक करण के असाध्य होता है—'करणासज्झं भवे दलियं' यह कहा है।
इस प्रकार से संक्रमित होने वाली प्रकृति की आधार बनने वाली प्रकृति की संज्ञा निर्धारित करने और आवलिका पर्यन्त करणासाध्यत्व का कारण स्पष्ट करने के बाद अब पूर्वोक्त संक्रम के लक्षण के अतिव्याप्ति दोष का परिहार करने के लिये आचार्य अपवाद का विधान करते हैं। संक्रम लक्षण : अपवाद विधान
नियनिय दिछि न केइ दुइयतइज्जा न दंसतिगंपि । मीसंमि न सम्मत्तं दसकसाया न अन्नोन्नं ॥३॥ संकामति न आउं उवसंतं तहय मूलपगईओ। .
पगइठाणविभेया संकमणपडिग्गहा दुविहा ॥४॥ शब्दार्थ-नियनिय-अपनी-अपनी, दिट्ठि-दृष्टि, न-नहीं, केइकोई, दुइयतइज्जा-दूसरे-तीसरे, न-नहीं, दंसणतिगंपि-दर्शनत्रिक को भी, मीसंमि-मिश्र में, न-नहीं, सम्मत्तं-सम्यक्त्व को, दसकसायादर्शनमोहनीय, कषायमोहनीय का, न-नहीं, अन्नोन्नं-परस्पर में ।
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